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मैं स्वयं भगवान हूँ
बदल जाता है, दरिद्रता के साथ का एकत्व टूट जाता है एवं 'मैं करोड़पति हूँ' - ऐसा गौरव का भाव जागृत हो जाता है, आजीविका की चिन्ता न मालूम कहाँ चली जाती है, चेहरे पर सम्पन्नता का भाव स्पष्ट झलकने लगता है ।
इसीप्रकार शास्त्रों के पठन, प्रवचनों के श्रवण और अनेक युक्तियों के अवलम्बन से ज्ञान में बात स्पष्ट हो जाने पर भी अज्ञानीजनों को इसप्रकार का श्रद्धान उदित नहीं होता कि ज्ञान का घनपिण्ड, आनन्द का रसकन्द, शक्तियों का संग्रहालय, अनन्त गुणों का गोदाम भगवान आत्मा मैं स्वयं ही हूँ। यही कारण है कि श्रद्धान के अभाव में उक्त ज्ञान का कोई लाभ प्राप्त नहीं होता ।
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काललब्धि आने पर किसी आसन्नभव्य जीव को परमभाग्योदय से किसी आत्मानुभवी ज्ञानी धर्मात्मा का सहज समागम प्राप्त होता है और वह ज्ञानी धर्मात्मा उसे अत्यन्त वात्सल्यभाव से समझाता है कि हे आत्मन्! तू स्वयं भगवान है, तू अपनी शक्तियों को पहिचान, पर्याय की पामरता का विचार मत कर, स्वभाव के सामर्थ्य को देख, सम्पूर्ण जगत पर से दृष्टि हटा और स्वयं में ही समा जा, उपयोग को यहाँवहाँ न भटका, अन्तर में जा, तुझे निज परमात्मा के दर्शन होंगे। ज्ञानी गुरु की करुणा-विगलित वाणी सुनकर वह निकट भव्य जीव कहता है
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"प्रभो ! यह आप क्या कह रहे हैं, मैं भगवान कैसे हो सकता हूँ? मैंने तो जिनागम में बताये भगवान बनने के उपाय का अनुसरण आजतक किया ही नहीं है। न जप किया, न तप किया, न व्रत पाले और न स्वयं को जाना - पहिचाना ऐसी अज्ञानी - असंयत दशा में रहते हुए मैं भगवान कैसे बन सकता हूँ?"
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अत्यन्त स्नेहपूर्वक समझाते हुए ज्ञानी धर्मात्मा कहते हैं-" भाई, ये बननेवाले भगवान की बात नहीं है, यह तो बने बनाये भगवान की बात
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