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एकता की अपील
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सामान्य औपचारिक बातचीत के उपरान्त मैंने उनसे कहा- दिगम्बर समाज की शक्ति व्यर्थ के ही विवादों में बर्बाद हो रही है, जब हम श्वेताम्बर भाइयों से इतना समायोजन कर सकते हैं तो थोड़े-बहुत मतभेदों के रहते आपस में भी क्यों नहीं कर सकते हैं ? जितना श्रम, शक्ति, बुद्धि एवं पैसा दिगम्बर समाज आपसी विवादों में बर्बाद कर रही है, यदि वह सब समाज के हित व धर्म के प्रचार में लग जावे तो दिगम्बर समाज का कायाकल्प हो सकता है, उसमें नई चेतना जागृत हो सकती है और वह आज की चुनौतियों को स्वीकार कर विश्व के सामने एक आदर्श उपस्थित कर सकता है।
आज की दुनिया कहाँ जा रही है और हम कहाँ उलझकर रह गये हैं। यदि हम चाहते हैं कि दिगम्बर धर्म का प्रचार-प्रसार देश- विदेशों में हो तो हमें इस पर गम्भीरता से विचार करना चाहिए।
मेरी इस भावना की सेठीजी ने भी सराहना की और कहा कि आपने “आचार्य कुन्दकुन्द और दिगम्बर जैन समाज की एकता"" नामक लेख में भी यह अपील की है, मैंने उसे पढ़ा है।
अपनी बात को स्पष्ट करते हुए मैंने एक उदाहरण दिया कि एक दम्पति (पति-पत्नी) में उग्र मतभेद चल रहे थे, तलाक की नौबत आ गई थी, दोनों अलग-अलग रह रहे थे। इसी बीच पत्नी के पिता का पत्र आया । उसमें उसने अपनी इकलौती बेटी को लिखा था कि अब मैं पूर्णतः अकेला रह गया हूँ । अतः जीवन के अन्तिम वर्ष अध्यात्म नगरी काशी में गुजारना चाहता हूँ । उसके पहले सात दिन तुम्हारे पास रहना चाहता हूँ। तुम्हारे पास रहकर यह देखना चाहता हूँ कि तुम सुखी तो हो, पति-पत्नी प्रेम से तो रहते हो; तुम्हारी सुखी गृहस्थी देखकर मैं निश्चिंत होकर काशी वास कर सकूँगा, अन्यथा मेरे चित्त में तुम्हारी सुख-सुविधा का विकल्प खड़ा रहेगा और मेरा मरण शान्ति नहीं हो सकेगा ।
मैं सर्वप्रकार निश्चिंत होकर जीवन के अन्तिम दिन गुजारना चाहता हूँ, मेरा १. सम्पादकीय : वीतराग-विज्ञान, जून १९९८