________________
एकता की अपील
करके अपने-अपने घर जाने लगे तो पति ने पत्नी से कहा
"सुनो, जरा विचार तो करो कि जब हम दूसरों के सुख के लिए एकसाथ प्रेमपूर्वक रहने का इतना अच्छा नाटक लगातार सात दिन तक कर सकते हैं तो अपने सुख के लिए यह नाटक जीवन भर भी क्यों नहीं कर सकते हैं ? "
पत्नी बोली - "क्यों नहीं ? अवश्य कर सकते हैं ?"
-
१०३
इसप्रकार वे दोनों पति-पत्नी प्रेमपूर्वक रहने लगे। कुछ दिन तो प्रेम का नाटक रहा, पर कुछ दिन बाद उनमें सहज प्रेमभाव भी जागृत हो गया ।
इसीप्रकार जब हम सम्पूर्ण जैनसमाज की एकता के लिए श्वेताम्बर भाइयों के साथ प्रेमपूर्वक उठ-बैठ सकते हैं, मिलजुलकर काम कर सकते हैं, सबप्रकार से समायोजन कर सकते हैं, तब फिर दिगम्बर समाज की एकता के लिए क्यों नहीं प्रेमपूर्वक उठ-बैठ सकते हैं, क्यों नहीं मिलजुल कर काम कर सकते हैं ? सभी प्रकार का समायोजन भी क्यों नहीं कर सकते हैं? जितना अन्तर दिगम्बर - श्वेताम्बर मान्यताओं में है, उतना अन्तर तो हम और आप में नहीं है न ?
एकबार ऊपरी मन से एकसाथ उठने-बैठने लगें तो फिर सहज वात्सल्य भी जागृत हो जायेगा । अनावश्यक दूरी व्यर्थ ही आशंकाएँ उत्पन्न करती है। दूरी समाप्त करने का एकमात्र उपाय सहज भाव से नजदीक आना ही है।
इस पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में आप जिसप्रकार का समायोजन कर रहे हैं और दिगम्बर प्रतिमाओं की जिसप्रकार प्रतिष्ठा हो रही है; उस पर मैं कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता, मुझे कोई विरोध भी नहीं है; पर यह अवश्य पूछना चाहता हूँ कि भारत में हम जो प्रतिष्ठाएँ कराते हैं; वे क्या आपकी दृष्टि में ऐसी भी नहीं हैं, जो आप उनका इतना विरोध करते हैं ? आपसे यही अनुरोध है कि दिगम्बर धर्म के प्रचार-प्रसार एवं दिगम्बर समाज की सुखशान्ति व एकता के लिए इन सब बातों पर एकबार गम्भीरता से विचार करें।
हमारी यह सम्पूर्ण वार्ता अत्यन्त स्नेहपूर्ण वातावरण में हुई। सेठीजी ने भी यही कहा कि हम भी यही चाहते हैं, पर हमारी कुछ आशंकाएँ हैं, जिनका