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अपने में अपनापन
यदि यह जड़ शरीर अस्वस्थ हो जावे तो हम डॉक्टर के पास दौड़ेदौड़े जाते हैं; जो वह कहता है, उसे अक्षरशः स्वीकार करते हैं; जैसा वह कहता है, वैसे ही चलने को निरन्तर तत्पर रहते हैं; उससे किसी प्रकार का तर्क वितर्क नहीं करते। यदि वह कहता है कि तुम्हें कैंसर है तो बिना मीन-मेख किये स्वीकार कर लेते हैं। वह कहे ऑपरेशन अतिशीघ्र होना चाहिए और एक लाख रुपये खर्च होंगे, तो हम कुछ भी आना-कानी नहीं करते, मकान बेचकर भी भरपूर सीजन के समय ऑपरेशन कराने को तैयार रहते हैं । डॉक्टर की भरपूर विनय करते हैं, लाखों रुपये देकर भी उनका आजीवन एहसान मानते हैं । पर जब आत्मा का डॉक्टर बताता है कि आपको मिथ्यात्व का भंयकर कैंसर हो गया है, उसका शीघ्र इलाज होना चाहिए तो उसकी बात पर एक तो हम ध्यान ही नहीं देते और देते भी हैं तो हजार बहाने बनाते हैं । प्रवचन का समय अनुकूल नहीं है, हम बहुत दूर रहते हैं, काम के दिनों (वीकडेज) में कैसे आ सकते हैं? न मालूम कितने बहाने खड़े कर देते हैं।
आखिर शरीर के इलाज की इतनी अपेक्षा और आत्मा के इलाज की इतनी उपेक्षा क्यों? इसका एकमात्र कारण शरीर में अपनापन और भगवान आत्मा में परायापन ही तो है । जबतक शरीर से अपनापन टूटेगा नहीं और भगवान आत्मा में अपनापन आएगा नहीं, तबतक शरीर की उपेक्षा और भगवान आत्मा के प्रति सर्वस्व समर्पण संभव नहीं है। सर्वस्व समर्पण के बिना आत्मदर्शन-सम्यग्दर्शन संभव नहीं है। यदि हमें आत्मदर्शन करना है, सम्यग्दर्शन प्राप्त करना है तो देह के प्रति एकत्व तोड़ना ही होगा, आत्मा में एकत्व स्थापित करना ही होगा।
देह से भिन्नता एवं आत्मा में अपनापन स्थापित करने के लिए देह की मलिनता और आत्मा की महानता के गीत गाने से काम नहीं चलेगा, देह के परायेपन और आत्मा के अपनेपन पर गहराई से मंथन करना होगा।