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अपने में अपनापन
अब माँ बेटे के सामने थी और बेटा माँ के सामने: पर माँ बेटे के वियोग में दुःखी थी और बेटा माँ-बाप के वियोग में। माँ भोजन करने बैठती तो मुँह में कौर ही नहीं दिया जाता, बेटे को याद कर करके रोती-बिलखती हुई कहती
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"न जाने मेरा वेटा कहाँ होगा, कैसी हालत में होगा ? होगा भी या नहीं? या किसी के यहाँ चौका बर्तन कर रहा होगा ? "
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वहीं खड़ा बेटा एक रोटी माँगता तो झिड़क देती
" जा अभी काम कर, बचेगी तो फिर दूँगी । काम तो करता नहीं और बार-बार रोटी माँगने आ जाता है । "
उसी बेटे के लिए रोती-बिलखती और उसे ही रोटी माँगने पर झिड़कती । क्या है यह सब ? आखिर वह माँ दु:खी क्यों है ?
क्या कहा, बेटे के अभाव में?
वेटा तो सामने है । बेटे के अभाव में नहीं, बेटे में अपनेपन के अभाव में ही वह माँ परेशान हो रही है, दुःखी हो रही है।
उसका बेटा नहीं खोया है, बेटा तो सामने है, बेटे की पहिचान खो गई है, बेटे में अपनापन खो गया है। मात्र पहिचान खो जाने, अपनापन खो जाने का ही यह दुष्परिणाम है कि वह अनन्त दुःख के समुद्र में डूब गई है, उसकी सम्पूर्ण सुख-शान्ति समाप्त हो गई है ।
उसे सुखी होने के लिए बेटे को नहीं खोजना, उसमें अपनापन खोजना है।
एक दिन पड़ोसिन ने कहा - " अम्माजी। एक बात कहूँ, बुरा न मानना यह लड़का अभी बहुत छोटा है, इससे काम जरा कम लिया करें और खाना भी थोड़ा अच्छा दिया करें, समय पर दिया करें । "
सेठानी एकदम क्रोधित होती हुई बोली - " क्या कहती हो? यह काम करता ही क्या है ? दिन भर पड़ा रहता है और खाता भी कितना है? तुम्हें क्या पता - दिन भर चरता ही रहता है।"