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णमोकार महामंत्र : एक अनुशीलन ने चुना है, वह सम्यक् नहीं है। न तो शस्त्र सुरक्षा के साधन ही हैं और न दवाइयाँ दुःख दूर करने में समर्थ हैं; क्योंकि न तो वे लोग सुरक्षित ही दिखाई देते हैं, जो शस्त्रों की सुरक्षा में रहते हैं और न वे सुखी ही दिखाई देते हैं, जो प्रतिदिन दस-पाँच गोलियाँ तो खाते ही हैं।
शस्त्रों से सुरक्षा की बात तो पंजाब के उदाहरण से स्पष्ट हो ही चुकी है, रही बात जीवन रक्षक दवाइयों से सुरक्षा एवं दर्दनाशक दवाइयों से सुखी हाने की बात, सो भाई! भारतवर्ष में ऐसे अनेक नग्न दिगम्बर संत मिलेंगे, जिन्होंने जीवन में एक भी गोली नहीं खाई होगी। दिन में एक बार शुद्ध सात्विक आहार लेनेवाले, दूसरी बार जल का बिंदु भी ग्रहण नहीं करने वाले वीतरागी संत सौसौ वर्ष की आयु पर्यन्त पूर्ण स्वस्थ दिखाई देते हैं और अपनी पूर्ण आयु को चलते-फिरते आत्मसाधना में रत रहते आनन्द से भोगते हैं; जबकि प्रतिदिन अनेक गोलियां खाने वाले दिन-रात भक्ष्य-अभक्ष्य पौष्टिक पदार्थ भक्षण करनेवाले जगतजन भरी जवानी में ही जवाब देने लगते हैं।
इसप्रकार यह अत्यंत स्पष्ट है कि न तो हथियार सुरक्षा के साधन हैं, और न ही भोगोपभोग सामग्री तथा औषधियाँ सुखी होने का वास्तविक उपाय हैं; आयुकर्म का उदय जीवन का आधार है और शुभकर्मों का उदय लौकिक सुखों का साधन है। ये कर्म भी जीव स्वयंकृत शुभाशुभ भावों के अनुसार स्वयं ही बांधता है। इसप्रकार यह प्राणी अपने जीवन-मरण और सुख-दु:ख का पूर्ण उत्तरदायी स्वयं ही है, अन्य किसी का इसमें रंचमात्र भी हस्तक्षेप नहीं है।
इसी बात को यहाँ बड़ी दृढ़ता से प्रस्तुत किया गया है कि जो यह मानते हैं कि मैं दूसरों को मारता हूँ या उनकी रक्षा करता हूँ अथवा दूसरे मुझे मारते हैं या वे मेरी रक्षा करते हैं; वे मूढ़ हैं, अज्ञानी हैं; और ज्ञानी इससे विपरीत हैं; क्योंकि ज्ञानी ऐसा नहीं मानता वह तो यह स्वीकार करता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने सुख-दुःख और जीवन-मरण का पूर्ण उत्तरदायी स्वयं ही है, कोई किसी के जीवन-मरण और सुख-दुःख का कर्ता-हर्ता-धर्ता नहीं है।
दूसरों को मारने, बचाने या दुःखी-सुखी करने के विकल्प में उलझे