Book Title: Namokar Mahamantra Ek Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla, Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 53
________________ जीवन-मरण और सुख-दुःख प्रतिकूलता प्राप्त हो रही है, वह सब मेरे पूर्वकृत कर्मों का ही परिणाम है तो सहज समताभाव जागृत होगा, शान्ति से सब सहन कर साम्यभाव धारण कर लेंगे। ___ अतः राग-द्वेष कम करने का सरलतम उपाय अपने सुख-दुःख का कारण अपने में ही खोजना है, मानना है, जानना है। ___यह कैसे सम्भव है कि हमारे पाप का उदय हो और हमें कोई सुखी कर दे। इसीप्रकार यह भी कैसे सम्भव है कि हमारे पुण्य का उदय हो और हमें कोई दुःखी करदे । यदि ऐसा होने लग जावे तो फिर स्वयंकृत पाप-पुण्य का क्या महत्त्व रह जायेगा ? उक्त सन्दर्भ में आचार्य अमितिगति का निम्नांकित कथन ध्यान देने योग्य है - स्वयं कृतं कर्मयदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् । परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुट, स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा ॥ निजार्जित कर्म विहाय देहिनो, न कोपि कस्यापि ददाति किंचन। विचायने वमनन्यमानस:, परो ददातीति विमुच्च शेमुषीम् । इस जीव के द्वारा पूर्व में जो शुभ और अशुभ कर्म स्वयं किए कहे गये हैं, उनका ही फल उसे वर्तमान में प्राप्त होता है। यह बात पूर्णतः सत्य है, क्योंकि यदि यह माना जाय कि सुख-दुःख दूसरों के द्वारा किये जाते हैं तो फिर स्वयं किए गये सम्पूर्ण कर्म निरर्थक सिद्ध होंगे। ___ अपने द्वारा किये गये कर्मों को छोड़कर इस जीव को कोई भी कुछ नहीं देता। जो कुछ भी सुख-दुःख इसे प्राप्त होते हैं, वे सब इसके ही शुभाशुभ कर्मों के फल हैं। इसलिए मन को अन्यत्र न भटका कर, अनन्य मन से इस बात का विचार करके पक्का निर्णय करके हे भव्यात्मा ! 'सुख-दुःख दूसरे देते

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