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भक्ति और ध्यान
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किया और न रक्षा के भाव करने वाले धरणेन्द्र से राग ही किया; दोनों पर समान रूप से समताभाव ही रखा; अतः आपको नमस्कार हो ।
यहाँ यह बात कितनी स्पष्ट है कि आपने रक्षा करने वाले से राग नहीं किया और उपसर्ग करने वाले पर द्वेष नहीं किया; इसीकारण हम आपको नमस्कार करते हैं। यदि आप धरणेन्द्र से राग और कमठ से द्वेष करते तो हम आपको नमस्कार नहीं करते; क्योंकि ऐसा तो सभी संसारी जीव दिन-रात करते ही हैं और इसी कारण दुःखी भी हैं। यदि आप भी ऐसा ही करते तो आप में और उनमें क्या अन्तर रहता?
देखो, कितना अन्तर है दोनों दृष्टिकोणों में । जहाँ एक ओर कर्त्तावादी दर्शनों में दुष्टों के दलन के लिए ही भगवान अवतरित होते हैं, भक्तों की रक्षा करने के लिए भगवान दौड़े-दौड़े फिरते हैं, भगवान भगत के वश में हैं - यह कहा जाता है; वहाँ अकर्त्तावादी जैनदर्शन में भगवान को पूर्ण वीतरागी रूप में ही पूजा जाता है। भक्तों का भला करना तो बहुत दूर, यदि वे उन्हें अनुराग की दृष्टि से देखें तो भी हम उन्हें भगवान मानने को तैयार नहीं हैं। इसीप्रकार दुष्टों का दलन करना तो बहुत दूर, यदि भगवान दुष्टों को द्वेष की नजर से देखें तो भी हम उन्हें भगवान मानने को तैयार नहीं हैं।
जैनियों के भगवान तो वीतरागभाव से सहज ज्ञाता-दृष्टा होते हैं। वे जानते सबकुछ हैं, पर करते कुछ भी नहीं । उन्हें कुछ करने का विकल्प भी नहीं उठता, यदि कुछ करने का विकल्प उठे तो वे भगवान ही नहीं हैं। हित का उपदेश भी सर्वांग से खिरने वाली उनकी दिव्यध्वनि में सहज ही प्रस्फुटित होता है, वे उसमें भी कुछ करते - धरते नहीं हैं।
यही है जैनियों के भगवान का सच्चा स्वरूप, पर आज हम जैनी भी उनके इस सच्चे स्वरूप को भली-भाँति कहाँ जानते हैं ? कर्त्तावादी दर्शनों की देखा-देखी हम भी उनकी स्तुति कर्ता-धर्ता के रूप में ही करने लगे हैं। यह सब हमारा अज्ञान ही है । जिनवाणी में भी यदि कहीं इसप्रकार के कथन आये हों तो उन्हें भी व्यवहार का कथन समझना चाहिए। उन्हें वास्तविक कथन