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जीवन-मरण और सुख-दुःख
प्रत्येक व्यक्ति के जीवन-मरण और सुख-दुःख के कारण उसी के अन्दर विद्यमान हैं । कोई अन्य व्यक्ति न तो उसे मार ही सकता है और न ही उसे बचा सकता है। अत: अन्य जीवों को अपने जीवन-मरण और सुख-दुःख का कारण मानना सबसे बड़ी भूल है और इस भूल के कारण ही हम व्यर्थ ही दूसरों को मित्र - शत्रु मानकर राग-द्वेष किया करते हैं।
यदि एक बार यह परमसत्य हमारी समझ में आ जाय तो हमारी अनंत आकुलता सहज ही समाप्त हो सकती है।
इस परमसत्य का उद्घाटन आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने निम्नांकित गाथाओं इसप्रकार किया है -
में
जो मण्णदि हिंसामि य हिंसिजामि य परेहिं सत्तेहिं । सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो || आउक्खयेण मरणं जीवाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं । आउं ण हरेसि तुमं कह ते मरणं कदं तेसिं ॥ आउक्खयेण मरणं जीवाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं । आउं ण हरंति तुहं कह ते मरणं कदं तेहिं ॥ जो मण्णदि जीवेमि य जीविज्जामि य परेहिं सत्तेहिं । सो मूढो अण्णाणी णाणी एतो दु विवरीदो ॥ आऊदयेण जीवदि जीवो एवं भणंति सव्वण्हू । आउंच ण देसि तुमं कहं तए जीविदं कदं तेसिं ॥ आऊदयेण जीवदि जीवो एवं भणंति सव्वण्हू । आउंच ण दिंति तुहं कहं णु ते जीवदि कदं तेहिं ॥