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भक्ति और ध्यान
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है ? मुक्ति में जाना ही तो भगवान बनना है। जो जीव मुक्ति में पहुँच गये, वे ही तो भगवान हैं। क्या आप इतना भी नहीं जानते कि जैनियों में उन्हीं को तो भगवान कहते हैं, जो मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं । मुक्ति प्राप्त जीव ही सिद्ध भगवान हैं।
जैनियों के भगवान किसी को अपना भक्त नहीं बनाना चाहते हैं, वे तो सभी भव्यों को भगवान बनने का ही उपदेश देते हैं। वे तो यही चाहते हैं कि सभी जीव मुक्ति के मार्ग पर चलकर भगवान बनकर सिद्धशिला में आकर उन्हीं की बगल में उनकी बराबरी से विराजमान हो जावें ।
जगत में आप किसी उद्योगपति या व्यापारी के पास जाओगे तो वह तुम्हें अच्छी नौकरी दे सकता है, नौकरी में तुम्हारी तरक्की कैसे होगी - इसका उपाय बता सकता है; पर तुम्हें वही उद्योग लगाने का उपदेश नहीं देगा, विधि भी नहीं बतायेगा; कहेगा यह तो हमारे व्यापार का राज़ है। वह तो यह चाहेगा भी नहीं कि आप वही उद्योग लगावें, वही व्यापार करें; पर जैनियों के भगवान सभी को भगवान बनने की ही विधि बताते हैं ।
अरे भाई, भगवान तो भगवान बनने की विधि बताते हैं, पर हम तो उनके बताये मार्ग पर नहीं चल सकते हैं न? अतः हमारे किस काम की है वह विधि ? हमें तो कुछ ऐसा मार्ग बतावें कि जिस पर हम चल सकें।
अरे भाई, भगवान तो यह कहते हैं कि तुम स्वयं भगवान हो और भगवान बन भी सकते हो। इसीलिए वे तुम्हें भगवान बनने की विधि भी बताते हैं, पर तुम कहते हो कि हम इस मार्ग पर चल नहीं सकते। ऐसी अनुत्साह की बात क्यों करते हो ?
कोई भी समझदार व्यक्ति पाँच लाख के हाथी से यह नहीं कहता कि एक गिलास पानी लाना, पर पाँच वर्ष की कन्या से कहता है; क्योंकि वह ला सकती है, हाथी नहीं ला सकता। जब लोक में भी कोई समझदार व्यक्ति उससे वह काम करने के लिए नहीं कहता, जो उस काम को कर नहीं सकता; अपितु उससे ही कहता है, जो कर सकता है तो क्या भगवान या आचार्यदेव तुमसे भगवान बनने