Book Title: Namokar Mahamantra Ek Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla, Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 34
________________ णमोकार महामंत्र : एक अनुशीलन ३० उत्पन्न होता है और सबका मिलाकर एक नाम आत्मानुभूति है । जब यह आत्मानुभूति प्रगट होती है, तब विषय कषाय की रुचि तो समाप्त हो ही जाती है, साथ में अनुभूति की सघनता के अनुपात में विषयकषाय की वृत्ति और प्रवृत्ति भी कम होती जाती है। जब इस अनुभूति का वियोग काल अन्तर्मुहूर्त से भी कम रह जाता है तो साधु दशा प्रगट हो जाती है और जब यह अनुभूतिरूप सघन आत्मध्यान की दशा लगातार अन्तर्मुहूर्त तक रह जाती है तो अनन्त-अतीन्द्रिय-आनन्द के साथ-साथ सर्वज्ञता भी प्राप्त हो जाती है। अतः सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के लिए, आत्मानुभूति के लिए, अनन्त अतीन्द्रिय-आनन्द और सर्वज्ञता की प्राप्ति के लिए एकमात्र निज भगवान आत्मा को ही जानना है, जानते रहना है। यही मार्ग है, सन्मार्ग है, मुक्तिमार्ग है, परमार्थ है, भगवान बनने का उपाय है, एकमात्र करने योग्य कार्य है, शेष सब अकार्य हैं, जी के जंजाल हैं। यह सब तो निश्चय मुक्तिमार्ग है, भगवान बनने का पारमार्थिक पंथ है; साथ में व्यवहार मुक्तिमार्ग भी होता है न? ww हाँ, होता है, अवश्य होता है; पर व्यवहार मोक्षमार्ग किसे कहते हैं यह जानते हो ? निश्चयमोक्षमार्ग माने वास्तविक मोक्षमार्ग। जिसके प्राप्त होने पर नियम से मुक्ति की प्राप्ति हो, उसे ही निश्चयमोक्षमार्ग कहते हैं । उक्त रत्नत्रय ही निश्चयमोक्षमार्ग है। इस रत्नत्रय के साथ भूमिकानुसार रहनेवाला शुभराग और 'सद्प्रवृत्ति को व्यवहारमोक्षमार्ग कहा जाता है। उसमें व्रत शील-संयम - तपत्याग आदि सभी शुभभावरूप वृत्तियाँ आ जाती हैं। - जब निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप मुक्ति का मार्ग अन्तर में प्रगट होता है, तब से जबतक मुक्ति प्राप्त नहीं हो जाती, तबतक के काल में उस ज्ञानी धर्मात्मा का जो बाह्य धर्माचरण होता है, अणुव्रतादिरूप शुभभाव होते हैं, तदनुकूल सद्प्रवृत्ति होती है; उसे ही सहचारी होने से व्यवहारमोक्षमार्ग कहते

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