Book Title: Namokar Mahamantra Ek Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla, Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 33
________________ भक्ति और ध्यान हुई थीं। उनकी भी वैसी मुद्रायें क्यों नहीं बनाई गई मूर्तियों में; जबकि अन्य धर्मों में ऐसा होता भी है। राम-सीता, शंकर-पार्वती, विष्णु-लक्ष्मी की मूर्तियाँ इसीप्रकार की बनाई जाती हैं। पर जैन तीर्थंकरों की सभी मूर्तियाँ ध्यान मुद्रा में ही क्यों मिलती हैं ? जब इस बात पर गम्भीरता से विचार करते हैं तो एक बात अत्यन्त स्पष्ट दिखाई देती है कि ध्यान चारित्र का सर्वोत्कृष्ट रूप है; ध्यान अवस्था में ही केवलज्ञान होता है, अनन्तसुख प्रगट होता है; अनन्तवीर्य की प्राप्ति भी ध्यानावस्था में ही होती है। अत: ध्यान मुद्रा ही धर्ममुद्रा है, सर्वश्रेष्ठ मुद्रा है। ध्यान सर्वश्रेष्ठ है, पर किसका ध्यान ? अपने आत्मा का; पर का नहीं, परमात्मा का भी नहीं। निजभगवान आत्मा के ध्यान से ही केवलज्ञान की प्राप्ति होती है। आज तक जितनी भी आत्माओं को सर्वज्ञता की प्राप्ति हुई है, उन सभी को निज भगवान आत्मा के ध्यान से ही हुई और भविष्य में भी जिन्हें सर्वज्ञता की प्राप्ति होगी, वह भी निज भगवान आत्मा के आश्रय से ही होनेवाली है। अत: आत्मध्यान ही धर्म है। ___ आत्मा का ध्यान करने के लिए उसे जानना आवश्यक है। इसीप्रकार अपने आत्मा के दर्शन के लिए भी आत्मा का जानना आवश्यक है। इसप्रकार आत्मध्यान रूप चारित्र के लिए तथा आतमदर्शनरूप सम्यग्दर्शन के लिए आत्मा का जानना जरूरी है तथा आत्मज्ञान रूप सम्यग्ज्ञान के लिए तो आत्मा का जानना आवश्यक है ही। अन्तत: यही निष्कर्ष निकला कि धर्म की साधना के लिए एकमात्र निज भगवान आत्मा का जानना ही सार्थक है। ___ सुनकर नहीं, पढ़कर नहीं; आत्मा को प्रत्यक्ष अनुभूति पूर्वक साक्षात् जानना ही आत्मज्ञान है और इसीप्रकार जानते रहना ही आत्मध्यान है। इसप्रकार का आत्मज्ञान सम्यग्ज्ञान है और इसीप्रकार का आत्मध्यान सम्यक्चारित्र है। जब ऐसा आत्मज्ञान और आत्मध्यान होता है तो उसीसमय आत्मप्रतीति भी सहज हो जाती है, आत्मा में अपनापन भी सहज आ जाता है, अतीन्द्रिय आनन्द का वेदन भी उसीसमय होता है; सबकुछ एकसाथ ही

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