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( १८ ) कर यह निर्णय दिया है कि 'नैषधीयकाव्य' के श्लोकों की छाया भी 'सरस्वतीकण्ठाभरण' में नहीं है। डॉ० आफ्रेरक्त ने स्वरचित ‘आक्सफोर्ड मैनुस्क्रिप्ट' ( हस्तलिखित पुस्तक सूची ) में 'सरस्वतीकण्ठाभरण' में उद्धृत श्लोकों और उनके रचयिता का नामानुक्रम दिया है, उसमें भी कहीं नैषध अथवा नैषधकार का नाम नहीं है । इस प्रकार डॉ० हाल ने या तो 'सरस्वतीकण्ठाभरण' का कोई अशुद्ध संस्करण देखा है या फिर उनका कथन ही भ्रांत है।
( ३ ) सायणमाधव का 'शंकरविजय' ऐतिहासिक ग्रन्थ नहीं है, उसका आधार दन्तकथाएँ हैं। उसका उद्देश्य शंकराचार्य महाराज की महत्ता प्रतिपादन मात्र है । ऐतिहासिक दृष्टि से उसका महत्त्व नहीं है।
(४) जहाँ तक ग्रौस महोदय के पृथ्वीराजरासो' के आधार का और उसके आधार पर निर्धारित मान्यता का प्रश्न है, 'रासो' का प्रमाणित होना अत्यन्त विवादग्रस्त है, उस पर अनेक आपत्तियां है । वस्तुतः उसको प्राप्त प्रति ही बहुत बाद की है। चन्द ने पूर्वजातों को प्रणाम करने की परम्परा में जो क्रम दिया है, वह पूर्णतः अविश्वसनीय है। वस्तुतः वह क्रम है ही नहीं । 'क्रम' ग्रोस साहब ने मान भर लिया है। यह कोई विचार ही नहीं सकता कि श्रीहर्ष कालिदास से भी पूर्व हुए थे । स्वयं जस्टिस तेलंग भी 'रासो' को प्रमाणित रचना नहीं मानते ।
श्रीहर्ष बारहवीं शती में उत्पन्न हुए-डॉ० बूलर के इस निष्कर्ष का आधार चांड़ पण्डित (१२६९ ई०) की नैषधीय की टीका है, जिसमें विद्याधर की 'साहित्य विद्याधरी' टीका में 'नैषधीयचरित' को दिये गये विशेषण 'नवं काव्यम्' के आधार पर उसे नूतन काव्य माना गया है। 'प्रबन्धकोष' के अनुसार श्रीहर्ष ने 'नैषध' की रचना ११७४ ई० से कुछ पूर्व की थी। श्रीहर्ष इसकी रचना करके ही काश्मीर गये थे।
जैसा कि कहा जा चुका है कि गंगेश उपाध्याय (१२०० ई०) ने श्रीहर्ष के 'खंडनखडखाद्य' का खंडन किया था, वाचस्पति ने गंगेश के उत्तर में खण्डनोद्धार' लिखा है। इसके अतिरिक्त हेमचन्द्र सूरि (१०८८-११७२ ई० ) के शिष्य महेन्द्र सूरि ने हेमचंद्राचार्य की पुस्तक 'अनेकार्थसंग्रह' की टीका 'अनेकार्थक रवा करकौमुदी' में 'नैषध' का उल्लेख किया है। यह टीका