Book Title: Mahapurana Part 4 Author(s): Pushpadant, P L Vaidya Publisher: Bharatiya Gyanpith View full book textPage 7
________________ 14] महाकषि पुष्पवंत कृत महापुराण शुरू होती हैं। अपने तीसरे जन्म में राग और लक्ष्मण, विजय और चन्द्रचूल के रूप में मित्र थे। रनपुर के राजा प्रजापति का बेटा चन्द्रकुल था। मंत्री के पुत्र का नाम बिजय था। भर-जवानी में उन्होंने युवा सेठ श्रीदत्त की पत्नी पूर्वरदत्ता का अपहरण कर लिया । प्रजा के विरोध करने पर राजा ने दोनों को जंगल में लेजाकर वध का आदेश दिया। मंत्रियों और पोरजमों के कहने पर मारने के बजाय, उन्हें गहन जंगल में ले जाया गया। वहां मंत्री ने जैन महामुनि महाबल से दोनों कुमारों का भविष्य पूछा । मुनि ने कहा-दोनों बालक तीसरे भय बलराम और वाराणहारी। तब उन दोनों ने नदीक्षा ग्रहण कर ली। एक बार तप करते हुए उन्होंने मधुसूदन और पुरुषोत्तम का वैभव देखकर निदान किया कि जैन तप का यदि कोई प्रभाव हो, तो मुझे भी अगले जन्म में यह सब वैभव प्राप्त हो । विजय मरकर सनत्कुमार देव हुआ, उसका नाम स्वर्णचूल पा। इधर चन्द्र चूस मणिचूल नाम का देवता हुआ । स्वर्ग से व्युत होकर उनमें से मणिचूस काशी के राजा दशरथ की सुचला रानी का पुत्र राम हुआ। मौर, स्वर्णचूल दूसरी रानी कैकेयी से लक्ष्मण नाम का पुत्र हुआ। बड़े होने पर उनकी धाक दूर-जूर फैल चुकी थी। गोरे और काले रंगवाले वे दोनों कुमार ऐसे लगते 'थे मानो राजा दशरथ रूपी गरुड़ के पवेत और काले दो पंख हों। संख्यातीत काल बीतने पर दशरथ को काशी से अयोध्या आना पड़ा था। इसी बीच दशरथ के पुत्र भरत और शत्रुघ्न भी उत्पन्न हुए। राजा जनक ने यश की रक्षा और सीता के स्वयंवर का जो निमंत्रण भेजा उसमें राम भी आमंत्रित थे। बशरथ के पास भी लिखित पत्र आया। उसमें लिखा था कि जो इस परम कृत्य वाले यज्ञ की रक्षा करेगा, उसे मैं अपनी सुकन्या सीता दूंगा। मंत्री बुद्धिविशारद ने पत्र का समर्थन करते हुए यज्ञ को रक्षा को परम कर्तव्य बताया। दूसरे मंत्री अतिशयमति ने इसका विरोध करते हुए राजा सगर का उदाहरण दिया। उसने कहा कि चारण नगर के राजा सुमोधन को रानी अतिथि की सुंदर कन्या सुलसा के स्वयंवर में अयोध्या का राजा सगर पहुँचा । कन्या की माँ अतिथि उसे अपने भाई के पुत्र मधुपिंगल को देना चाहती थी। तब सगर के पुरोहित मंत्री ने झूठा सामुद्रिक शासन बनाकर उसे धरती में गड़दा दिया। एक किसान को वह मिला। द्विजवर के रूप में मत्री वहाँ पहुंचा और उसने अलग अर्थ किया कि जो मधुपिगल को विवाह मंडप में प्रवेश देगा उसकी कन्या विधवा हो जाएगी। मभूपिंगल लज्जा के कारण वहां से भाग गया। बढे सगर ने कन्या से विवाह कर लिया। मधुर्षिगल ने जैनदीक्षा ले ली। एक दिन नगर में भिक्षा के लिए जन मधूपिंगल घूम रहा था वहां उसे सगर के कस्ट जाल का पता चला । उसने आक्रोश में आकर यह निदान बांधा कि सगर मेरे हाथ से मरे यदि जैन तप का कोई प्रभाव हो। वह मरकर असुरेंद्र का वाहन पानी भैसा हुआ, साठ हजार भंसाओं का अधिपति। जिनवर के धर्म को स्वीकार करते हए भी बह क्षमाभाव के बिना दुर्गति में गया। उसे ज्ञात हो गया कि किस प्रकार वह सगर के द्वारा ठगा गया। उसने मन-ही-मन कहा कि देखें अयोध्या का राजा यह अब कैसे बचता है। वह सालकायण नाम का वेदमंत्रों का उच्चारण करनेवाला ब्राह्मण बन गया, श्रेष्ठ मुनियों को दूषित करनेघाला और हिंसक । इसी बीच, पर्वतक की कथा शुरू होती है। विप्रवर क्षीरकदंब के तीन शिष्य थे, एस उसका बेटा पर्वतक जो पढ़ने में कमजोर था, दूसरा राजा बसु और तीसरा नारद । एक दिन वे वन में गये । क्षीरकदव ने वह एक जैनमुनि से उनका भविष्य पूछा। उन्होंने कहा कि नारद सर्वार्थसिदि जाएगा, और बाकी दो नरक, यज्ञ के फल के कारण । क्षीरकदंब की पत्नी राजा बसु को पीटने से बचाती है। मह उसे बर देता है। आचार्याणी उसे भविष्य के लिए सुरक्षित रखती है। वह पति से लगड़ा करती है कि वह नारद को विशेष पढ़ाते हैं, अपने लड़के को नहीं । क्षीरकदंब विविध प्रयोगों द्वारा पस्ली को बताता है कि नारद जन्म से प्रतिभाशाली है, जबकि पर्वतक मंदबुद्धि है । अन्त में क्षीरकदंब नारद को परिवार सौंपकर जैन हो गया। वह मर कर स्वर्ग गया । बहुत दिनों बाद नारद और पर्वतक में अज' शब्द के अर्थ को लेकर विवाद हो गया। नारदPage Navigation
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