Book Title: Mahapurana Part 4
Author(s): Pushpadant, P L Vaidya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 5
________________ महाकवि पुष्पवंस कृत महापुराण 121 मेरे विचार में, इसमें अन्तविरोध की कोई बात नहीं। श्रीहर्ष की भाषा की तुलना पुष्पदन्त की अपभ्रश से करने पर यह स्वतः स्पष्ट हो जाएगा। पुष्पदन्त के दो ममूने उक्षुत है "धीरं प्रविहिय मामयं सीह हयसर सामपं सिय सेत्तिय सानयं मिसिसियं हिसामपं" एक सरल नमूना "पर उवयारिस जीवउ वताई दीष्णुशरणु विहसगं संतहं । गोमल कति गिय महामंडलि हरिगुण कहा हुई आहंगलि।" (महापुराण 85/17) इसमें विरोध कहाँ है ? विरोध तुलनीयों के गलत चयन में है। आलोध्ययुग में दूसरा विरोधाभास यह है कि एक ओर उसमें दिग्गज आचार्य हुए तो दूसरी ओर निरक्षर सम्त जिनके द्वारा ज्ञान प्रचार के बीज बोए गए । परन्तु ऐसा किस युग में नहीं हुवा ? क्या बाज ऐसा नहीं है ? वास्तव में यह बीज बोने का नहीं. फसल काटने का काम है । बुद्ध और महावीर ने लोकभाषाओं में उपदेश देकर ऊंचा तत्वज्ञान आम जनता को सुलभ कराने की जो परम्परा डाली थी, या बीज बोये थे वे इस युग में अंकुरित पल्लवित होकर झाड़ बन चुके थे। और फिर आत्मज्ञान के लिए साक्षर या पढ़ा निखा होना इस देश में कतई जरूरी नहीं रहा । पढ़े-लिखे भी मूर्ख हो सकते हैं और निरक्षर भी आत्मज्ञानी । यह कितनी अजीब बात है कि आचार्य द्विवेदी इस युग को अन्धकार का युग माने और लिखें, 'अन्धकार के इस युग को प्रकाशित करने वाली जो भी चिनगारी मिल जाए, उसे जलाए रखना चाहिए क्योंकि वल एक बहत बड़े आलोक की संभावना लेकर आई होती है। उसमें युग के संपूर्ण मनुष्य को उद्वासित करने की ममता होती है। चिनगारी से द्विवेदी जी का अभिप्राय मध्यदेश में लिखी गई छोटी-मोटी रचना से है: में धर की चिनगारी चाहिए, पड़ोस की धधकती आग से कोई मतलब नहीं।' आखिर क्यों ? क्या घर की चिनगारी ही पूर्ण मनुष्य को प्रकाशित कर सकती है, पड़ोस की भाग नहीं ? वास्तव में डॉ. विवेवी चाहते किहिन्दी वाले अपभ्रश और अबहछ या देश्य मिश्रित अपभ्रश के साहित्य का गहन अध्ययन करें परन्तु प्रश्न था कि हिन्दी अनुवाद के बिना बह करे कौन? भारतीय ज्ञानपीठ ने सचमुच इस दिशा में बढ़त बड़ा ऐतिहासिक कार्य किया है। पुष्पदन्त को रामकथा आदिपुराण (महापुराण 1-37 संधिया) की रचना के बाद कवि पुष्पदन्त का मन कई कारणों से सजन से उचट जाता है। मंत्री भरत यदि हाथ जोड़कर उनके सामने बैठकर घरमा नहीं देते तो शायद ही कवि महापुराण का वेष भाग लिखता। भरत अपने अनुरोध से कवि को मना लेते हैं और पुष्पदन्त बीस

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