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अक्रिया शब्द का तीन अर्थों में प्रयोग किया जाता है । ( एक) दुष्ट क्रियाओं को अक्रिया कहा जाता है, मिथ्यात्व से उपहत जीव का अमोक्ष-साधक अनुष्ठान अक्रिया कहलाता है । (दो) संवृत अणगार की निरवद्य क्रिया पापकर्म का बन्धन नहीं करनेवाली होने से अक्रिया कहलाती है तथा उस संवृत अणगार को अक्रिय कहा जाता है, (तीन) चतुर्दश गुणस्थानवी जीव का योग निरोध अक्रिया है ; व्यवदान ( कर्मक्षय ) से अक्रिया होती है तथा अक्रिया से जीव अन्तक्रिया करके मोक्ष को प्राप्त करता है ।
श्रमण निर्ग्रन्थ के भी क्रिया होती है ; उनके प्रमाद के कारण तथा योग- निमित्त से क्रिया होती है अर्थात् कर्म का बन्धन होता है [देखें १४.१ (छ)] प्रतिलेखन, प्रतिक्रमण आदि सायमिक क्रियाओं में अवहेलना करना, उनको नहीं करना, उनमें जल्दबादी करना, असावधानी करना, उनको समय पर नहीं करना-इत्यादि प्रमादों से श्रमण-निर्ग्रन्थ को कर्म का बन्धन होता है। जाना, आना, उठना, बैठना, वस्त्रपात्रादि लेना, रखना आदि यौगिक क्रियाओं को अयत्नपूर्वक करने से श्रमण-निर्ग्रन्थ को योगनिमित्त से क्रिया होती है । अयनपूर्वक गमनादि क्रिया करने से श्रमण-निर्ग्रन्थ को कायिकी क्रियापंचक को ३ या ४ या ५ क्रियाएँ होती हैं। टीकाकार के अनुसार दुष्प्रयुक्त शरीर की चेष्टाओं से श्रमण-निर्गन्ध को प्रमादप्रत्ययिकी क्रिया होती है । जिस श्रमण के प्रमाद भी नहीं है, कषाय भी नहीं है, केवल योग है, उस श्रमण-निर्ग्रन्थ के योग-निमित्त से केवल ऐपिथिको क्रिया होती है !
प्रतिक्रमण सूत्र में भिक्षु के द्वारा ‘क्रियाओं का प्रतिक्रमण करने का विधान है । इसमें क्रिया प्रतिक्रमण के दो पाठ हैं, एक, कायिकी क्रियापंचक के प्रतिक्रमण का पाठ है तथा दूसरा, तेरह क्रियास्थानों के प्रतिक्रमण का पाठ है । [ देखें क्रमांक ६३ ] यहाँ पर यह विचारणीय है कि इन तेरह क्रियास्थानों में ऐपिथिको क्रिया भी शामिल है तथा भिक्षु उसका भी प्रतिक्रमण करता है। श्रमण-निर्ग्रन्थ के साधुवृत्ति को पालन करते हुए कभीकभी प्रमादवश या अन्यथा साध्वाचार का अतिक्रमण हो जाता है तब उन अतिक्रमण की क्रियाओं से श्रमण के क्रिया होती है। ऐसी कितनी ही क्रियाओं का आचारांग सूत्र में वर्णन है, यथा-कालातिकम किया, उपस्थान क्रिया, अभिक्रांत किया, अनभिक्रांत किया, वर्ण्यक्रिया, महावर्य क्रिया, सावद्य क्रिया, महासावद्य क्रिया, अल्पसावध क्रिया, पर क्रिया, अन्योन्यक्रिया । अल्पमावद्य क्रिया को बाद देकर इन क्रियाओं से संयति के क्रिया-दोष लगता है। अल्पसावद्य क्रिया में टीकाकार ने अल्प शब्द का अभाववाची अर्थ किया है और कहा है कि इससे साधु को क्रिया नहीं होती है। [देखें क्रमांक ६४२]
अहिंसा महाव्रत को दूसरी और तीसरी भावना में भी श्रमण-निर्ग्रन्थ को कायिकी आदि क्रियाओं में मन से तथा वचन से प्रवृत्ति न करने का उपदेश दिया गया है। [देखें E ]
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"Aho Shrutgyanam"