Book Title: Kriya kosha
Author(s): Mohanlal Banthia
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 397
________________ क्रिया-कोश ३३३ क्रिया परिस्पन्दन रूप होती है। परिणाम अपरिस्पन्दन रूप है, क्रिया परिस्पन्दन रूप होती है। तत्त्वभाष्य -- आ आकाशादेव धर्मादीनि निष्क्रियाणि भवन्ति । पुद्गलजीवास्तु क्रियावन्तः। -तत्त्व० अ५ । सू६ धर्म-अधर्म-आकाश क्रिया-रहित होते हैं तथा जीव और पुद्गल क्रियावाद होते हैं। (ख) क्रिया परिस्पन्दात्मिका द्विविधा ।।१६।। द्रव्यस्य द्वितयनिमित्तवशात् उत्पद्यमाना परिस्पन्दात्मिका क्रियेत्यवसीयते । सा द्विविधा पूर्ववत् प्रयोगविस्रसानिमित्ता । प्रायोगिकी शकटादीनाम् । विनसानिमित्ता मेघादीनाम् । स्थितिग्रहणमिति चेत् ; न ; परिणामावरोधात् ।। २० ॥ ___ स्यादेतत् -- यदि परिस्पन्दात्मिका क्रिया इत्युच्यते स्थितेग्रहणं प्राप्नोति । गतिनिवृत्तिर्हि स्थितिरिति, तन्न ; किं कारणम् ? परिणामावरोधात्। स्थितिहि परिणामेऽन्तर्भवति । परिणामग्रहणमेवास्ते इति चेत् ; न ; भाववैविध्यख्यापनार्थत्वात् ॥२१॥ स्यान्मतम्- यथा स्थितिः परिणामेऽन्तर्भवति तथा क्रियापि तत्रैवावरुध्यते इति परिणामग्रहणमेवैकमस्तु इति, तन्न ; किं कारणम् ? भावविध्यख्यापनार्थत्वात् । द्रव्यस्य हि भावो द्विविधः-परिस्पन्दात्मकः, अपरिस्पन्दात्मकश्च। तत्र परिस्पन्दात्मकः क्रियेत्याख्यायते, इतरः परिणामः, इत्येतत् ख्यापनार्थ पृथगग्रहणम् । -तत्त्वराज 1 अ ५ । सू १६ से २२ । पृ० ४८१ बाह्य और आभ्यंतर निमित्तों से द्रव्य में जो परिस्पन्दात्मक परिणमन होता है उसे क्रिया कहते है । वह प्रायोगिक और वैनसिक दो प्रकार की होतो है। गाड़ी आदि की क्रिया प्रायोगिकी है तथा मेघादि की क्रिया वैससिकी है । यहाँ एक प्रश्न उठता है कि स्थिति रूप परिणमन का यदि परिणाम में अन्तर्भाव होता है तो क्रियारूप परिणमन का भी उसी में अन्तर्भाव हो सकता है और ऐसी स्थिति में केवल परिणाम का ही निर्देश करना चाहिए। समाधान में कहा गया है कि द्रव्य के परिस्पंदात्मक तथा अपरिस्पंदात्मक दो भाव होते हैं तथा इन दोनों प्रकार के भावों की सूचना के लिए क्रिया का पृथक् ग्रहण करना आवश्यक है। अस्तु परिस्पंदन क्रिया है तथा अपरिस्पंदात्मक भाव-परिणाम है। "Aho Shrutgyanam"

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