Book Title: Kriya kosha
Author(s): Mohanlal Banthia
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 398
________________ क्रिया-कोश '६६ १२ ऐपिथिक क्रिया और सावध --- __'सूयगडांग' सूत्र में क्रियास्थान अध्ययन में १३वें क्रियास्थान में ऐापथिक क्रिया का वर्णन करते हुए सूत्रकारने सूत्र के अन्त में निम्नलिखित वाक्यों का प्रयोग किया है। 'सा पढमसमए बद्धा-पुट्ठा, बितीयसमए वेश्या, तइयसमए निजिण्णा सा बद्धा-पुट्ठा-उदीरिया-वेश्या सेयकाले अकम्मे यावि भवइ । एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावजति आहिज्जइ ।' ---सूय श्रु० २ । अ २ । सू १४ । पृ० १४६ उपयुक्त पाठ में ऐयोपथिक क्रिया से तत्प्रत्ययिक होने वाले सावध का उल्लेख है । 'एवं खलु तस्स तप्पतियं, 'सावज' ति आहिज्जई' में 'सावज" शब्द का प्रयोग हमारी समझ में नहीं आया, लेकिन प्रकाशित अनेक प्रतियों का अवलोकन करने पर भी सर्वत्र 'सावज' शब्द मिला। खोज करने पर हमने सुना कि कतिपय हस्तलिखित प्रतियों में 'सावज्ज' शब्द बाद दिया हुआ है लेकिन उसके स्थान पर वाक्यपूर्ति के लिए किसी अन्य शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। हमारे मन में आया कि स्याद्वादी होने के कारण सूत्रकार ने 'सावज' शब्द का प्रयोग किसी विशेष दृष्टि या नय की अपेक्षा ही किया होगा । सामान्यतः 'सावद्य' का अर्थ पाप या पापकर्म का बंधन के भाव में लिया जाता है तथा ऐपिथिक क्रिया से सातावेदनीय पुण्य कर्म का बंधन होता है। १२ क्रियास्थानों में जिनसे पापकर्म का बंधन होना निश्चित है उनमें भी 'एवं खलु तस्स तप्पत्तियं 'सावज्ज' ति आहिज्जइ' वाक्य का प्रयोग है। अतः ऐपिथिक क्रिया के साथ पाप या पापकर्म बंधन अर्थ वाले 'सावद्य' शब्द का प्रयोग हमें अनुपयुक्त लगा। हम अनुसंधान के कार्य के लिए आवश्यक सूत्र की मलय गिरि टीका का अध्ययन कर रहे थे उसमें 'सावजजोगविरो ' शब्द पर हमारी दृष्टि टिकी। हमने इस शब्द की टीका पढनी आरंभ की। इसमें, भिन्न-भिम्न नयों की अपेक्षा 'सावजजोगविरओ' की टीका की गयी है। इसमें 'एवंभूतनय से साक्द्य शब्द का अर्थ इस प्रकार किया गया है। 'अवध कर्मबंधः, सहावद्य यस्य येन वा स सावद्यः।' अतः अवद्य का यदि केवल कर्म अर्थ लिया जाय तो ऐपिथिक क्रिया के साथ 'सावद्य' शब्द के प्रयोग में कोई बाधा नहीं आती है क्योंकि इस क्रिया से भी दो समय की स्थिति वाले कर्म का बंधन होता है। सावज्जजोगविरओ, तिगुत्तो छसु संजओ। उवउत्तो जयमाणो, आया सामाइअं होइ ।।१४६॥ (मू० भा०) टीका–xxx एवंभूतो वदति-xxx। सावद्ययोगविरतो नाम अवद्यकर्मबंधः, सहावद्य यस्य येन वा स सावद्यः। योगो व्यापारः सामर्थ्यवीर्यमित्येकार्थ, “जोगो विरियं थामो उच्छाहपरक्कमो तहा चेट्ठा । सत्ती सामत्थं चिय जोगस्स हवंति पजाया ॥१॥” इति वचनात, सावद्यश्चासौ योगश्च सावद्ययोगस्तस्मात् "Aho Shrutgyanam"

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