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क्रिया-कोश कजंति, तं जहा-आरंभिया, परिगहिया, मायावत्तिया, अपच्चक्खाणकिरिया। तत्थ णं जे ते मिच्छादिठ्ठी, जे य सम्मामिच्छाद्दिठ्ठी तेसिं (ण) णियइयाओ पंच किरियाओ कज्जति, तं जहा-आरंभिया. परिग्गहिया, मायावत्तिया, अपच्चक्खाणकिरिया, मिच्छादसणवत्तिया । सेसं जहा नेरइयाणं ।
--पण्ण० प १७ । उ १ । सू११४२ । पृ० ४३६-३७ मनुष्य जीव भी सब समान क्रियावाले नहीं होते हैं क्योंकि वे तीन प्रकार के होते हैं यथा-सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि तथा सम्यगमिथ्यादृष्टि । जो सम्यग्दृष्टि होते हैं वे तीन प्रकार के होते हैं- यथा-संयत, संयतासंयत तथा असंयत । जो संयत होते हैं वे दो प्रकार के होते हैं यथा-सरागसंयत तथा वीतरागसंयत । जो वीतरागसंयत होते हैं वे (आरंभिकी क्रिया की अपेक्षा ) अक्रिय होते हैं तथा जो सरागसंयत होते है वे दो प्रकार के होते हैं यथा-प्रमत्तसंयत तथा अप्रमत्तसंयत । जो अप्रमत्तसंयत होते हैं उनके केवल एक मायाप्रत्ययिकी क्रिया होती है तथा जो प्रमत्तसंयत होते हैं उनके आरंभिकी तथा मायाप्रत्ययिकी दो क्रियाएँ होती हैं जो संयतासंयत होते हैं उनके आरंभिकी आदि प्रथम को तीन क्रियाएँ होती है।
जो असंयत होते हैं उनके मिथ्यादर्शनप्रत्यायिकी वाद चार क्रियाएँ होती हैं।
जो मिथ्यादृष्टि तथा सम्यगमिथ्यादृष्टि होते हैं उनके आरंभिकी क्रियापंचक की पाँचों क्रियाएँ होती है।
६५.७.६ वाणव्यंतर-ज्योतिषी-वैमानिक देवों में :
(क) वाणमंतराणं जहा असुरकुमाराणं एवं जोइसियवेमाणियाणं वि xxx सेसं (समकिरिया आइ) तहेव ।
--पपण० प १७ । उ १ । सू११४३-४४ । पृ० ४३७ (ख) वाणमंतरजोइसवेमाणिया जहा असुरकुमारा ।
-भग० श १ । उ २ । प्र६६ । पृ० ६६३
नारकी तथा असुरकुमार देवों को तरह वाणव्यंतर-ज्योतिषी-त्रैमानिक देव भी समान क्रियावाले नहीं होते है । जो सम्यग्दृष्टि होते हैं उनके मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी बाद चार क्रियाएँ होती हैं ; जो मिश्च्यादृष्टि तथा सम्यमिथ्यादष्टि होते हैं उनके आरंभिकी क्रियापंचक की पाँचों क्रियाएँ होती हैं।
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