Book Title: Kriya kosha
Author(s): Mohanlal Banthia
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 378
________________ क्रिया-कोश जे इमे भवंति समणा भगवंतो सीलमंतो जाव (वयमता गुणमंता संजया संवुडा बंभयारी) उवरया मेहुणाओ धम्माओ। णो खलु एएसि भयंताराणं कप्पइ आहाकम्मिए उवस्सए वत्थए। सेन्जाणिभाणि अम्हें अप्पणो सअट्टाए चेश्याई भवंति, संजहा–आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा । सव्वाणि ताणि समणाणं णिसिरामो, अवियाई वयं पच्छा अपणो सअट्ठाए चेतिस्सामो, तंजहाआएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा। एयप्पगारं णिग्धोसं सोचा णिसम्म जे भयंतारो तहप्पगाराई आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा। उवागच्छंति, उवागच्छित्ता इतरेतरेहिं पाहुडेहिं वटुंति । अयमाउसो ! वजकिरिया वि भवइ । -आया० श्रु २ । अ २ । उ २ । सू३८ । पृ० ५४,५५ इस लोक में कई श्रद्धालु गृहस्थ-गृहिणी आदि ऐसे होते हैं जो ऐसा कहते हैं कि जो साधु-श्रमण शीलवन्त हैं-आचारवन्त है, व्रतवन्त हैं, संयत हैं, संवृत है, ब्रह्मचारी है, मैथन धर्म से निवृत्त हुए है, वे आधाकर्मी उपाश्रय आदि में निवास नहीं करते हैं अतः वे गृहस्थादि अपने लिए बनाये गये भवन आदि को साधु-श्रमण के रहने के लिए छोड़ देते हैं, खाली कर देते हैं तथा अपने लिए अन्य भवनादि बना लेते हैं। यदि साधु को यह मालूम हो जाय कि यह गृहस्थ अपने लिए बनाये गये भवनादि को तो साधु-श्रमण के लिए छोड़ रहा है लेकिन अपने लिए अन्यत्र भवनादि बनायेगा। ऐसी स्थिति में साधु-श्रमण उस गृहस्थ के द्वारा प्रदत्त उन मकानों में जाकर रहे तो उसको वर्ण्य क्रिया लगती है । ६ महावय॑किरिया : इह खलु पाईणं वा, पडीणं वा, दाहीणं वा, उदीणं वा, संतेगइया सट्टा भवंति, तंजहा-गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा, तेसिं च णं आयारगोयरे णो सुणिसंते भवइ, तं सद्दहमाणेहिं तं पत्तियमाणेहि, तं रोयमाणेहिं, बहवे समण-माहण-अतिहिकिवण-वणीमए पगणिय पगणिय समुहिस्स तत्थ तत्थ अगारीहिं अगाराई चेइयाई भवंति, तंजहा-आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा। जे भयंतारो तहप्पगाराइ आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा उवागच्छंति, उवागच्छित्ता इतरेतरेहि पाहुडेहिं वटुंति, अयमाउसो! महावज्ज-किरिया वि भवइ । --आया० श्र२ । अ २ । उ २ । सू ३६ । पृ० ५५ "Aho Shrutgyanam"

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