Book Title: Kriya kosha
Author(s): Mohanlal Banthia
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 388
________________ ३२४ क्रिया-कोश १२ भिक्षु और कृतक्रिया संपसारी कयकिरिए, पसिणाय तणाणि य । सागारियं च पिंडं च, तं विजं परिजाणिया ।। -सूयः श्रु २ । अ६ । गा १६ । पृ० १२३ टीका-कृता शोभना गृहकरणादि क्रिया येन स कृतक्रिय इत्येवमसंयतानुष्ठानप्रशंसनम् । कृता अर्थात् शोभा करनी, प्रशंसा करनी, गृहकरणादि क्रियाओं की अर्थात असंयतानुष्ठानों की प्रशंसा करना--कृतक्रिया । उक्त गाथा में साधु को गृहकौं-असंयतानुष्ठानों की प्रशंसा न करने का उपदेश दिया है। ६४.३ भिक्षु और अक्रिया :--. (क) से भिक्खू अकिरिए अलूमए अकोहे. जाव अलोभे उवसंते परिनिव्वुडे । एस खलु भगवया अक्खाए संजय-विरय-पडिहय-पञ्चक्खाय-पावकम्मे अकिरिए संवुडे एगंतपंडिए भवइ । -सूय० श्रु २ ! अ ४ । सू ५ ! पृ० १६६ प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य पापस्थानों से विरत वह भिक्षु अक्रिय अर्थात् सर्व सावद्य क्रिया से रहित, अहिंसक, अकोधी यावत् अलोभी, उपशांत और परिनिवृत्त होता है। भगवान ने ऐसे संयमी को संयत, विरत, प्रतिहत्त-पापकर्म के प्रत्याख्यान सहित, अक्रिय, संवृत, एकांत पंडित कहा है । (ख) अकिरियं परियाणामि, किरियं उपसंपज्जामि । - आव० अ४ । पृ० ११६६ __ अक्रिया अर्थात दुष्टक्रिया का परित्याग करता हूँ तथा 'क्रिया अर्थात सदनुष्ठान क्रिया में समाचरण करता हूँ ! ६४४ भिक्षु और वैद्य की छेदन-क्रिया अणगारस्स गं भंते ? भावियप्पणो छ8छट्टेणं अनिक्खित्तेणं-जाव-आयावेमाणस तस्स णं पुरिच्छमेणं अवर्ल्ड दिवसं नो कपइ हत्थं वा पायं वा बाहं वा उरु वा आउंटावेत्तए वा पसारेत्तए वा, पञ्चच्छिमेणं से अवड्डू दिवसं कप्पइ हत्थं वा पायं "Aho Shrutgyanam"

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