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क्रिया-कौश
• १८ जैनेतर ग्रन्थों में क्रिया के समतुल्य वर्णन
[ जैनेतर ग्रन्थ का 'क्रिया' की अपेक्षा हम विस्तृत अध्ययन नहीं कर सके । पुस्तकों के शेष में शब्द सूची के अभाव में हमारे अनुसंधान में कमी रह गयी । महाभारत के शांति पर्व में हमें क्रिया संबन्धी उपर्युक्त पाठ नहीं मिला। गीता से हमने तीन पाठ लिये :]
१ गीता में कर्मसंग्रह का कारण करण-क्रिया
[ जिस प्रकार जैनदर्शन में किया—करण को कर्मबन्ध का निमित्त कहा गया है प्रायः उसी प्रकार गीता में करण क्रिया को कर्मसंग्रह का एक कारण बताया गया है । करणं कर्म कर्त्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः । - गीता० अ १८ श्लो०१८ | उत्तरार्ध शांकरभाष्य- करणं क्रियतेऽनेनेति बाह्य श्रोत्रादि, अन्तस्थं बुद्ध्यादि. कर्मेप्सिततमं कर्तुः क्रियया व्याप्यमानं कर्त्ता करणानां व्यापारयितोपाधिलक्षण इति त्रिविधस्त्रिप्रकारः कर्मसंग्रहः । संगृह्यतेऽस्मिन्निति संग्रहः कर्मणः संग्रहः कर्मसंग्रहः ।
करण अर्थात् जिससे क्रिया की जाती है । करण के दो भेद हैं- बाह्य और अन्तस्थ बाह्य किया श्रोत्रेन्द्रिय आदि से होती है तथा अन्तस्थक्रिया बुद्धि आदि से होती । इच्छापूर्वक जो क्रिया की जाय वह कर्म है ! बाह्य तथा अन्तस्थ करणों से व्यापार करता हुआ उपाधिलक्षण कर्त्ता है—इन तीनों से कर्म संग्रह होता है ।
२ गीता में सर्वारम्भपरित्यागी आत्मासर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते ॥
- गीता० अ १४ । श्लो २५ । उत्तरार्ध
शांकरभाष्य - सर्वारम्भपरित्यागी दृष्टादृष्टार्थानि कर्माण्यारभ्यन्त इत्यारम्भाः सर्वानारम्भान्परित्यक्तुं शीलमस्येति सर्वारम्भपरित्यागी देहधारणमात्रनिमित्तव्यतिरेकेण सर्वकर्मपरित्यागीत्यर्थः ।
दृष्ट अदृष्ट अर्थों -- कर्मों को जो किया जाय-- वह आरंभ है। जिसका शील-धर्म सर्व आरम्भ परित्याग करने का है वह सर्वारम्भपरित्यागी । देह धारण निमित्त जो कर्म करने पड़े उनको छोड़कर सर्व कर्म आरम्भ का परित्याग करने वाला - सर्वारम्भपरित्यागी । '३ गीता में कर्मों से लिप्त न होनेवाली आत्मायोगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न
"Aho Shrutgyanam"
जितेन्द्रियः । लिप्यते ॥
-- गीता० अ ५ । श्लो ७