Book Title: Kriya kosha
Author(s): Mohanlal Banthia
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 374
________________ ३१० क्रिया-कौश जो भिक्षु व्रतों और समितियों के पालन में, इन्द्रिय-विषयों तथा क्रियाओं के परिहार में सहायता करता है वह संसार में नहीं रहता है । (ख) किरियासु भूयगामेसु, परमाहम्मिस्सु य। जे भिक्खू जयई निच, से न अच्छड मंडले ।। -उत्त० अ ३१ । गा १२ ! पृ० १०३८ जो भिक्षु तेरह प्रकार के क्रियास्थानों, चौदह प्रकार के जीव समुदायों और पन्द्रह प्रकार के परमाधार्मिक देवों में सदा यत्न रखता है वह संसार में नहीं रहता अर्थात् परिभ्रमण नहीं करता है। (ग) सुविसुद्ध लेसे मेहावी, परकिरिअं च वजए णाणी । -सूय ० श्रु १ । अ ४ । उ २। गा २१ । पृ० ११५ निर्मल लेश्या वाला मेधावी तथा ज्ञानी---विवेकवान भिक्षु परक्रिया अर्थात पर के प्रति स्व-शरीर से या पर के द्वारा स्व-शरीर में की जानेवाली पर-क्रियाओं को त्याग दे । (घ) परकिरियं अन्नमन्नं च, तं विजं परिजाणिया । -सूय० श्रु १। अ६ । गा १८ उतरार्ध । पृ० १२३ दूसरों के द्वारा स्व-सम्बन्धी कोई क्रिया कराना अथवा पर-सम्बन्धी कोई क्रिया करना तथा परस्पर में एक दूसरे के सम्बन्ध में क्रिया करना-इसको विद्वान भिक्ष 'ज्ञ' परिज्ञा से जानकर 'प्रत्याख्यान' परिज्ञा से छोड़ दे। (ङ) अन्नउत्थिया णं भंते ! एवं आइक्खंति, एवं भासंति, एवं पन्नति, एवं परूवेंति कहन्न समणाणं निग्गंथाणं किरिया कन्जइ ? तत्थ जा सा कडा कज्जइ नो तं पुच्छंति, तत्थ जा सा कडा नो कजइ नो तं पुच्छंति, तत्थ जा सा कडा अकडा नो कन्जइ नो तं पुच्छंति, तत्थ जा सा अकडा कजइ तं पुच्छंति, से एवं वत्तव्वं सिया __ अकिञ्च दुक्खं, अफुसं दुक्ख, अकजमाणकडं दुक्खं अकट्टु अकट्ठ पाणाभूया-जीवा-सत्ता वेयणं वेति त्ति वत्तव्वं, जे ते एवमासु मिच्छा ते एवमाहंसु, अहं पुण एवमाइक्खामि, एवं भासामि, एवं पन्नवेमि, एवं परूवेमि-किच्च दुक्खं, फुसं दुक्खं, कजमाणकडं दुक्खं कट्टु कट्टु पाणा-भूया-जीवा-सत्ता वेयणं वेयंति त्ति वत्तव्वयं सिया। -ठाण• स्थान ३ । उ २ । सू १६७ । पृ० २११ __ (च) अण्णउत्थिया णं भंते ! एवं आइक्खंति, जाव-एवं पवेति xxx l अकिञ्च दुक्खं, अफुसं दुक्खं, अकजमाणकडं दुक्खं अकट अकटटु पाण-भूय-जीवसत्ता वेदणं वेदंति इति वत्तव्वं सिया। से कहमेयं भंते ! एवं ? "Aho Shrutgyanam"

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