Book Title: Kriya kosha
Author(s): Mohanlal Banthia
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 375
________________ ३११ क्रिया - कोश गोयमा ! जंणं ते अण्णउत्थिया एवमाइक्खंति, जाव वेयणं वेदेति वत्तम्वं सिया । जे ते एवं आहिंसु, मिच्छा ते एवं आहिंसु । अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि xxx 1 कि दुखं, फुलं दुक्खं, कज्जमाणकडं दुक्खं, कटू टु कट्टु पाणभूय जीव-सत्ता वेदणं वेदेंति इति वत्तव्वं सिया । दुःख हैं । - भग० श १ | उ १० । प्र० ३१६,३१७,३२४ । पृ० ४१४-१५ अन्यतीर्थियों का कथन है कि अकृत्य दुःख है, अस्पृश्य दुःख है तथा अक्रियमाण कृत इनको नहीं कर के, नहीं करके ही प्राण, भूत, जीव और सत्त्व वेदना को वेदते भगवान का कथन है कि अन्यतीर्थियों का उपर्युक्त कथन गलत है । उनका कहना है कि कृत्य दुःख है, स्पृश्य दुःख है, क्रियमाणकृत दुःख है तथा इनको कर-करके ही प्राण, भूत, जीव और सत्त्व वेदना को वेदते हैं । (छ) अस्थि णं भंते ! समणाणं णिग्गंथाणं किरिया कज्जर ? हंता, अस्थि । कहं णं भंते ! समणाणं णिग्गंथाणं किरिया कज्जइ ? मंडियपुत्ता ! पमायपञ्चया, जोगनिमित्तं च ; एवं खलु समणाणं णिग्गंथाणं किरिया कज्जइ । -भग० श ३ । उ ३ । ८६ । पृ० ४५६ श्रमण - निर्ग्रन्थ के भी किया होती है । श्रमण-निर्ग्रन्थ के दो कारण से क्रिया होती है— प्रमादप्रत्यय तथा योग निमित्त । प्रमाद से अर्थात दुष्प्रयुक्त शरीर की चेष्टा से तथा योग अर्थात् ऐर्यापथिकी गमनादि कार्यों से श्रमण निर्ग्रन्थ के क्रिया होती है । '६४'२ साध्वाचार के अतिक्रमण से भिक्षु को लगनेवाली क्रियाएँ :--- - १ कालातिक्रम क्रिया : - से (भिक्खू वा भिक्खुणी वा ) आगंतारेसु वा जाव ( आरामागारे वा, हाइकुलेवा, ) परियावसहेसु वा, जे भयंतारो उडुबद्धियं वा वासावासियं वा कल्पं वातिणावत्ता तत्थेव भुज्जो ( भुज्जो ) संवसंति, अयमाउसो ! कालाइ कंत-किरिया वि भवइ । -आया० श्रु २ । अ २ । उ २ । सू ३४ । पृ० ५४ पथिक- विश्राम गृह ( धर्मशाला, मुसाफिर खाना आदि ), आरामगृह ( बंगला, बगीचा, विश्रामगृह ), गृहपति के घर और मठ – उपाश्रय - आश्रमादि में जो साधु-साध्वी ऋतुबद्ध शीतोष्णकाल में मासकल्प तथा वर्षांकाल में चार मास कल्प व्यतीत करके वहाँ पर बार-बार बिना कारण आकर रहे तो उनको कालातिक्रम- क्रिया दोष लगता है । "Aho Shrutgyanam"

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