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क्रिया-कोश
२०५ तिर्यच पंचेन्द्रिय-मनुष्य वाणव्यंतर-ज्योतिषी से अनन्तर मनुष्यभव पाकर कोई भी जीव तीर्थ करत्व को प्राप्त नहीं करता है, लेकिन कोई एक जीव अन्त क्रिया करता है ।
सौधर्मदेव से सर्वार्थ सिद्धि तक के वैमानिक देव से अनन्तर मनुष्य भव पाकर कोई एक जीव तीर्थ करत्व को प्राप्त करता है, कोई एक नहीं प्राप्त करता है--- जैसा रत्नप्रभा पृथ्वी के नारको के विषय में कहा---वैसा ही सब जानना ।
टीका--( तित्थगरनामगोयाई) 'बद्धानि' सूचीकलाप इव सूत्रेण प्रथमतो बद्धमात्राणि, तदनन्तरमग्निसंपर्कानन्तरं सकृत् धनकुट्टितसूचीकलापवत् स्पृष्टानि "निधत्तानि' उद्वर्तनापवर्तनावर्जशेषकरणायोग्यत्वेन व्यवस्थापितानीति भावार्थः कृतानि निकाचितानि सकलकरणायोग्यत्वेन व्यवस्थापितानीत्यर्थः 'प्रस्थापितानि' मनुष्यगतिपंचेन्द्रियजातित्रसबादरपर्याप्तसुभगादेययशःकीनामसहोदयत्वेन व्यवस्थापितानीति भावः 'निविष्टानि' तीव्रानुभावजनकतया स्थितानि 'अभिनिविष्टानि' विशिष्टविशिष्टतराध्यवसायभावतोऽतितीव्रानुभावजनकतया व्यवस्थितानि 'अभिसमन्वागतानि' उदयाभिमुखीभूतानि 'उदीर्णानि' विपाकोदयमागतानि 'नोपशान्तानि' न सर्वथाऽभावमापन्नानि निकाचिताद्यवस्थोद्रे करहितानि वा न भवन्ति ।
जिसने तीर्थ'कर नाम-गोत्र-कर्म का-(बद्धानि) धागे से जुड़े हुए सुई के समुदायकी तरह प्रारंभिक बन्ध किया है, (स्पृष्टानि) स्पृष्ट-अग्नि में तपाकर, धन से कुटे हुए सुई के समूह की तरह परस्पर में स्पर्श किया है, (निधत्तानि ) निधत्त - उद्वर्तना और अपवर्तना को छोड़कर अवशेष करणों के अयोग्य किया है, (कृतानि) निकाचित--सब करण के अयोग्य किया है, (प्रस्थापितानि) प्रस्थापित-मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति; त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय तथा यशःकीर्तिनाम कर्मों के साथ में उदय रूप में व्यवस्थित किया है, (निविष्टानि ) निविष्ट-तीवरस का उत्पादक बनाया है, तीवरस का प्रदायक बनाया है, (अभिनिविष्टानि ) अभिनिविष्ट---विशिष्ट-विशिष्टतर अध्यवसाय होने से अति तीव्ररस का उत्पादक बनाया है, अति तीव्ररस का प्रदायक बनाया है, (अभिसमन्वागतानि) अभिसमन्वागत-उदयाभिमुख किया है, (उदीर्णानि) उदीर्ण-विपाकोदयरूप में उदय में लाया है, (नोपशान्तानि) नोउपशान्त--तीर्थकर नाम-गोत्र-कर्म को उपशान्त नहीं किया है अर्थात निकाचितादि अवस्था के बाहुल्य से रहित नहीं किया है---वह जीव तीर्थ करत्व को प्राप्त करता है।
"Aho Shrutgyanam"