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क्रिया-कोश क्षायोपशमिके भावे या क्रिया क्रियते तया। पतितस्यापि तद्भाव . प्रवृद्धिर्जायते पुनः ॥६॥ गुणवृद्ध्यै ततः कुर्यात् क्रियामस्खलनाय वा । एकं तु संयमस्थानं जिनानामवतिष्ठते ।।७।। वचोऽनुष्ठानतोऽसंगा क्रिया संगतिमंगति । सेयं ज्ञानं क्रियाभेद · भूमिरानन्द . पिच्छला |८
-ज्ञान० अष्टक , ज्ञानी, क्रिया-चारित्र में तत्पर-उद्यत ; उपशान्त, भावितात्मा तथा जितेन्द्रिय जीव संसाररूपी समुद्र से स्वयं तिरने में समर्थ है तथा दूसरों को भी तारने में समर्थ है ।
क्रियारहित अकेला ज्ञान बिल्कुल निरर्थक है, जैसे चलने की क्रिया के बिना मार्ग का जानकार व्यक्ति भी अभीष्ट नगरी में पहुँच नहीं सकता ।
जिस प्रकार दीपक निज में स्वप्रकाशक है फिर भी तेल भरने आदि क्रिया की अपेक्षा रखता है ; उसी प्रकार पूर्णज्ञानी भी निज के स्वभाव के अनुरूप क्रिया की अपेक्षा रखता है अर्थात् वे भी समुचित धर्मोपदेश, विहार, योगनिरोध आदि क्रियाएँ अवसर के अनुसार करते हैं।
व्यवहार क्रियाओं अर्थात सामायिक, प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं में निरत आत्मा का बाह्यभाव के कारण अर्थात् देवादि सुख लाभ हेतु के कारण निरादर नहीं करना चाहिए क्योंकि मुख में ग्रास दिये बिना क्षुधा की उपशांति की अभिलाषा नहीं मिट सकती है ।
गुली का बहुमान-सत्कारादि करना ; पश्चात्ताप, आलोचना आदि करना तथा गृहीत वत, नियम आदि का नित्य स्मरण करना-ये सब निरवद्य क्रियाएँ करणीय हैं—इससे पूर्व निष्पन्न--पूर्व उत्पन्न शुद्धभाव का पतन नहीं होता है और अनुत्पन्न उत्तम भाव समुत्पन्न होते हैं ।
क्षायोपशामिक भाव में सम्यग् ज्ञान, चारित्र, वीर्य के उल्लास रूप परिणाम से देवगुरु-वंदन तथा आवश्यकादि जो क्रिया की जाती है उनके द्वारा पतित अर्थात् शुभपरिणाम शिखर से नीचे गिरने वाले व्यक्ति के भी पुनः उन निरवय भावों की उत्पत्ति और प्रवृद्धि होती है।
__मात्र केवलज्ञानी हो एक संयमस्थान में---संयम अध्यवसाय में अवसिष्ठ रहते हैं । जिनों के ही सदा, निरन्तर, अव्यवच्छिन्न परिणाम धारा होती है। अन्य सभी मुमुक्षुओं के गुणों की वृद्धि तथा हानि होती रहती है। अतः गुणों की वृद्धि के लिए तथा पतन से बचने के लिए कियाओं का करते रहना आवश्यक है।
"Aho Shrutgyanam"