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क्रिया - कोश
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०४ २३ कयपडिकिरिया कृतप्रतिक्रिया - ओ० सू २० | लोयोक्यारविषये । पृ० ११ मूल लोगोवयारविषय सत्तविहे पन्नते तंजहा - अभ्मासवत्तियं, परच्छंदाणुकज्जहेउ, कयपडिकिरिया, अत्तगवेसणया, देसकालण्णुया सव्वसु
वत्तियं,
अपडिलोमया ।
कृत प्रतिक्रिया लोकोपचार विनय का एक भेद है । उपकारी के प्रति कृतज्ञता से उसकी सेवा वैयावृत्त्य करना कृतप्रतिक्रिया है ।
०४२४ कालरक्क तकिरिया कालातिक्रांतक्रिया
- आया० श्रु । अराउ रा सू ३४/ पृ० ५४ किसी एक स्थान में कल्पकाल ( एक स्थान में ऋतु अनुसार उत्कृष्ट जितने समय रहने का विधान है - वह कल्पकाल ) के उपरान्त बिना कारण रहने से साधु को कालातिक्रान्तक्रिया होती है । -- देखो भिक्षु और क्रिया
नोंध –'आयारांग' के द्वितीय श्रुतस्कंध, द्वितीय अध्ययन, द्वितीय उद्देशक में साध्वाचार के शय्या वसति वासस्थान का विवेचन है तथा वसति-विधान के अतिक्रमण आदि से होने वाली नव क्रियाओं का वर्णन है । यथा - कालइक्क तकिरिया, उबट्ठाणकिरिया, अभिक्कंतकिरिया, अणभिक्कंतकिरिया, वज्जकिरिया, महावज्जकिरिया, सावज्जकिरिया, महासावज्जकिरिया तथा अप्पसावज्जकिरिया ।
यहाँ पर शीलांगाचार्य ने क्रिया शब्द का भाव “ दोष" शब्द से व्यक्त किया है यथा "कालातिक्क तकिरिया वि भवइ" का अर्थ 'कालातिक्रमदोषः संभवति' किया है । ०४२५ कर णिज्जकिरिया - करणीयक्रिया
--- सू० श्रु २ अ २। सू १। निगा टीका - करणीयक्रिया तु यद्येन प्रकारेण करणीयं तत्तेनैव क्रियते नान्यथा । तथाहि । घटोमृत्पिंडादिकयैव क्रियते न पापाणसिकतादिकयेति ।
जितने प्रकार से वस्तु करणीय है अर्थात् की जा सकती है उतनी ही प्रकार की करणीय क्रिया है, अन्यथा नहीं है । यथा घट मिट्टी के पिंड से किया या बनाया जा सकता है, पत्थर आदि से नहीं ।
०४२६ किरिया कुसल - क्रियाकुशल
- भग० श् २। उ ५ प्र ३४। पृ० ४२८
मूल - xxx तत्थ णं तंगियाए नयरीए बहवे समणोवासया परिवसंति, xxx अभिगय जीवा ऽजीवा, उवलद्वपुण्णपावा,
बंध - मोक्खकुसला ! ××× ।
आसव-संवर-निज्जर-किरियाऽहिकरण
क्रियाकुशल- तुंगिका नगरी के श्रावकों के कई एक विशेषणों में से यह एक विशे
"Aho Shrutgyanam"