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"समो अरहंता" को मुख्यता का कल्याण या उपकार नहीं पंचपरमेष्ठी रूष नमस्कार मंत्र
रह जाता।
दी गई है। निश्चय दृष्टि में कोई किसी करता है । उसकी अपेन ली जाती, तो केवल सिद्ध परमेष्ठी की अभिवंदना रूप
प्राचीन मंत्र - यह पंच परमेष्ठी स्मरण मंत्र अनादि मूलमंत्र | 'अनादि-मूल-मंत्रोयम्' यह वाक्य जैन परंपरा में प्रसिद्धि को प्राप्त है। श्वेताम्बर संप्रदाय भी इसे अनादि मूलमंत्र मानता है। मूलाराधना टीका में अपराजित सूरि ने कहा है, कि सामायिक आदि लोकविन्दुसार पर्यन्त समस्त परमागम में णमो चरिहंतास इत्यादि शब्दों द्वारा गणधरों ने पंच परमेओिं को नमस्कार किया है। उक्त ग्रंथ के ये शब्द : आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ध्यान देने योग्य हैं; "यघेवं सकलस्य श्रुतस्य सामायिकादेलों कविन्दुसारान्तस्या मंगलं कुर्वद्भिर्गणधरैः णमो श्रहंताणमित्यादिना कथं पंचानां नमस्कारः कृतः १”
गौतम गणधर रचित प्रतिक्रमण ग्रंथ त्रयी से समोकार मंत्र की प्राचीनता पर प्रकाश पड़ता है। उसमें यह पाठ पढ़ा जाठा है: "जाव अरहंताणं भयवंता समोकारं करोमि, पज्जुवामं करेमि ताव कार्य पावकम्मं दुवरियं वोस्सरामि" - जब तक मैं अरहंत भगवान की नमस्कार करता हूँ, तथा पर्युपासना करता हूं, तब तक मैं पापकर्म दधा दुश्चरित्र के प्रति उदासीनो भवामि " - उदासीनता को धारण करता हूँ । टीकाकार प्रभाचंद्र ने पर्युपासना को इस प्रकार स्पष्ट किया है; "एकाप्रेण हि विशुद्धेन मनसा चतुर्विंशत्युत्तर- शतत्रयादि-उच्छ्वासै-रप्टोत्तर शतादिवारान् पंचनमस्कारोवारणमर्द्दतां पर्युपासनकरणं" ( ० १५५ ) एकाचित्त हो विशुद्ध मनोवृत्तिपूर्वक तीन सौ चौबीस उच्छ्वासों में एक सौ आठ बार पंच नमस्कार मंत्र का उच्चारण करता अर्हन्त की पर्युपासना है ।" इससे स्पष्ट होता है. कि प्रतिक्रमण करते समय १०८ चार णमोकार को जाप रूप पर्युपासना का कार्य परम आवश्यक है ।
धर्मध्यान के दूसरे भेद पदस्थ ध्यान में मंत्रों के जाप और ध्यान का कथन किया गया है। द्रव्यसंग्रह की गाथा ४६ को टीका में बारह हजार श्लोक प्रमाण पंचनमस्कार संबंधी ग्रंथ का उल्लेख किया गया है ।
"द्वादश सहस्रप्रभित-पंचनमस्कार-मंथ कथितक्रमेण लघुसिद्धचक्रं . ज्ञात्वा ध्यातव्यम्" - ( २०४ बृहद् द्रव्यसंग्रह )