Book Title: Kalyanmandir Stotra
Author(s): Kumudchandra Acharya, Kamalkumar Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 14
________________ । १६ । ऋद्धियों में विद्यमान होने के कारण पहले प्रकार की ऋड़ियां ही लोकों के नीचे स्थान पा सकी । वह प्रभाव है मूल ऋद्धयों में संज्ञा का लोप होना । इसी जटिलता के फलस्वरूप "महाबन्ध ग्रन्थ (महाधवल सिद्धान्त शास्त्र) के अनुमार ऋद्धियों की सनाए' उनमें जोड़ कर मूल के साथ बड़े ही कौशल से सामञ्जस्य स्थापित किया गया है । इस प्रकार श्लोकों के नीचे लिखी हुई ऋद्धियां एक सर्वथा नवीन एवं दुर्लभ वृति बन कर पारकों के सामने लाते हुए मुझे हर्ष का अनुभव हो रहा है। इस नई सूझ का विशेष श्रेय श्रीमान पं० बालचन्द जी सिद्धान्त शास्त्री को ही है, जिन्होंने सामजस्य स्थापित करने में सराहनीय उद्योग कर मुझे अनुगृहीत किया। देहली से जो प्रति मुझे प्राप्त हुई वह वस्तुत: जैसलमेर के विशाल शास्त्र भंडार की मूल प्रति की ही प्रतिलिपि है किन्तु उसे प्राप्त करने में असफलता के अतिरिक्त और क्या हाथ नगता ! इस पुस्तक में प्रकाशित मंत्राम्नाय श्री देवचद लालभाई जैन पुस्तकोद्धारक संस्था सूरत से प्रकाशित स्तोत्रत्रय से लिया गया है। और यह मनाम्नाय इस स्तोत्रत्रय में आनार्य महाराज श्री जयसिंह जी सूरि द्वारा संग्रहीत हस्तलिखित प्रति से लिया गया है । इस मन्त्राम्नाय को रचना ग्यारहवीं शताब्दी के बाद हुई प्रतीत होती है। क्योंकि महान मनवादी श्री मल्लिसेनमुरि विरचित भैरवपद्मावतीकल्प नामक गन्थ में इन मन्त्रों का भधिकांश भाग पाया है और ये मलिन सेन सुरि ग्यारहवीं शताब्दी में हुए हैं। स्तोत्रनय की रचना भैरवपद्मावतीकल्प के बाद हुई है। येन केन प्रकारेण सब कुछ हो जाने के बाद भी पुस्तक मानो स्वयं ही एक प्रभाव की पूर्ति के लिये पुकार रही थी

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