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( मणुआणदीहकालिय ) मनुष्यको दीर्घकालकी संज्ञा होति है ( दिठीवाओवएसिआकेवि ) कितनेक आचार्य मनुध्यको दृष्टिवादोपदेशकी २ संज्ञा भी कहते है । इति चोवीशदंडकमें तीन प्रकारकी संज्ञाद्वार ॥ ( पज्झपणतिरिमणुअच्चिय) पर्याप्ता पंचेद्रितिर्यंच और मनुष्य निश्चय करके ( चडविहदेवे सुगच्छंति) चार प्रकार के देवोंके विषे जाते है ३१
संखा उपजपणिदि तिरियनरेसुतहेवपज्जते । भूदगपत्तेयवणे एएसुच्चियसुरागमणं ॥ ३२ ॥
( संखा उपज्जपणंद) संख्याते आयुवाले पर्याप्तापंचेन्द्री ( तिरियन रेसुतहेवपज्जत्ते ) तिर्यंच और मनुष्य के विषे तेसेही पर्याप्ता ( भूदगपत्तेयवणे ) पृथ्वीकाय अपकाय और प्रत्येक वनस्पतिकाय (एएसुच्चिय) इस पांचोदंडक के विषे निश्चय करके ( सुरागमणं) देवता उत्पन्न होते है ॥ ३२ ॥
पज्जत्तसंखगप्भय तिरियनरानिरयसत्तगेजंति । निरयउवहाएएस उववजंतिनसेसेसु ॥ ३३ ॥
( पज्जत्तसंखगभय ) संख्याता वर्षके आयुवाले पर्याप्ते गर्भज ( तिरियनरा ) तिर्यंच और मनुष्य ( निरयसत्तगेजंति ) यह दोनोही सातोही नरकके विषे जाते है ( निरयवट्टा ) नरकसे निकले हुवे जीवो (एएस) यह दो दंडकमे उववज्जंति उपजें हे (नसेसेसु) शेष दंडकोके विषे उत्पन्न नही होते है ॥ ३३ ॥
| पुढवी आउवणस्सइ मज्झेनारयविवज्जियाजीवा । सवेउववज्जंति नियनियकम्माणुमाणेणं ॥ ३४ ॥