Book Title: Jivvicharadi Prakaran Sangraha
Author(s): Jinduttasuri Gyanbhandar
Publisher: Jinduttasuri Gyanbhandar

View full book text
Previous | Next

Page 253
________________ स्तिकायमा कोइक अस्तिकायमां पामियें. कोइकमां न पामिये ते गुणने साधारण असाधारण कहिये, ते सर्व गुणने विषे विशेषगुणने अनुयायि प्रवर्ते छे ते प्रवर्तनना कारण द्रव्यमां एक परमस्वभाव पणो छे, ते परमस्वभावने परिणमने द्रव्यना सर्वगुण मुख्य गुणने अनुगमेज प्रवर्ते. ते परमस्वभाव सर्वद्रव्यने विषे छे एटले तेर सामान्य स्वभाव कह्या. वली अनेकांतजयपताकामां कह्या छे. तथास्तित्व, नास्तित्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, असर्वगतत्व, प्रदेशवत्त्वादिभावाः पुनः तत्त्वार्थटीकायां पुनरप्यादिग्रहणं कुर्वन् ज्ञापयत्यत्रानन्तधर्मवत्त्वं तत्राशक्ताःप्रस्तारयन्तु सर्वे धर्माःप्रतिपदं प्रवचनत्वेन पुंसा यथासंभवमायोजनीयाः क्रियावत्त्वं पर्यायोपयोगिता प्रदेशाष्टकनिश्चलता एवंप्रकाराः संति भूयांसः अनादिपरिणामिका भवन्ति जीवखभावा धर्मादिभिस्तु समाना इति विशेषः । अर्थ-तेमज अस्तिपणो, नास्तिपणो, कर्त्तापणो, भोक्तापणो, गुणवंतपणो, असर्वव्यापिपणो, प्रदेशवंतपणो, इत्यादि. अनंतस्वभाववंत द्रव्य छे. तेमज तत्त्वार्थ टीकामध्ये परिणामिक भावना भेद वखाणतां कह्यो छे. पुनरपि आदि शब्दना ग्रहण करतां एम जणावे छे जे वस्तु अनंतधर्मवंत छे ते सर्व विस्तारी शके नही तो पण द्रव्य द्रव्यने विषे प्रवचनना जाण पुरुषे जेम संभवे तेम धर्म जोडवा. तथा क्रियावंतपणो जे ज्ञानादिक गुण ते लोकालोक जाणवाने प्रति समय प्रवर्ते छे. श्री भाष्यकारें ज्ञानादि गुण ते करण अने तेज गुणनी प्रवृत्ति ते क्रिया जाणवी तथा देखवो ते कार्य

Loading...

Page Navigation
1 ... 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306