Book Title: Jivvicharadi Prakaran Sangraha
Author(s): Jinduttasuri Gyanbhandar
Publisher: Jinduttasuri Gyanbhandar
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नयचक्रसार मूळ
बालावबोधसहित
॥१४७॥
___ अर्थ-ते प्रथम ग्रंथिभेद करीने शुद्धश्रद्धावान् तथा शुद्ध ज्ञानी जे जीव ते प्रथम त्रण चोकडीनो क्षयोपशम करीने पाम्यो जे चारित्र ते ध्याने एकत्व थयीने क्षपकश्रेणि मांडी अनुक्रमे घातिकर्म क्षय करीने केवल ज्ञान केवलदर्शन पामे. पछे ए सयोगी गुणें जघन्यथी अंतर्मुहूर्त अने उत्कृष्टो आठ वरश उणापूर्वकोडी रहीने कोइक केवली समुद्घात करें, कोइक केवली समुद्घात न करे; पण आवर्जिकरण सर्व केवली करे ते आवर्जिकरण- खरूप कहे छे-इहां आत्मप्रदेशे रह्या जे कर्मदल ते पेहेला चलेछ, पछे उदीरणा थाय छे, पछे भोगवी निजरे छे. तिहां केवलीने जिवारे तेरमें गुणठाणे अल्पायु रहे तिवारें आवर्जिकरण करे छे. ते आत्मप्रदेशगत कर्मदलने प्रति समये असंख्यातगुण निर्जरा करवी छे तेटला दलने आत्मवीर्ये करीने सर्व चलायमान करी मूके एवं जे वीर्य- प्रवर्तन ते आवर्जिकरण कहिये. एम करतां त्रण कर्मदल वधतां रह्या तो समुद्घात करे नहीतो न करे ते माटे आवर्जिकरण सर्व केवली करे. पछे तेरमा गुणठाणाने अंते योगनो रोध करीने अयोगी अशरीरी, अनाहारी अप्रकंप घनीकृत आत्मप्रदेशी थको, पांच लघुअक्षर जेटलो काल अयोगी गुणठाणे रहीने, शेषसत्तागत प्रकृति विद्यमान तथा अविद्यमान स्तिबुक संक्रमें सत्ताथी खपावी, सकल पुद्गल संगपणाथी रहित थयी, तेहिज समयें आकाश प्रदेशनी बीजी श्रेणिने अणफरसतो थको लोकांते सिद्ध कृतकृत्य संपूर्ण गुण प्राग्भावी पूर्ण परमात्मा परमानंदी अनंतकेवलज्ञानमयी, अनंतदर्शनमयी, अरूपी सिद्ध थाय. उक्तं च उत्तराध्ययने “कहिं पडिहया सिद्धा, कहिं सिद्धा पयठिया ॥ कहिं वोदि चइत्ताणं ॥ कत्थ गंतूण सिज्झई ॥ अलोए पडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पइछिया ॥ इह वोदिं चइत्ताणं तत्थ गंतूण सिज्झई ॥” इत्यादि ते सिद्ध एकांतिक आत्यंतिक,
॥१४७॥

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