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नयचक्रसार मूळ
बालावबोधसहित
॥१४३॥
तथा संग्रहनय ते सत्तागत सामान्य विशेष बेहुने ग्रहे छे, अने व्यवहार ते सत् एक विशेषनेज ग्रहे छे; माटे संग्रहनयथी व्यवहारनयनो विषय थोडो छे अने व्यवहारनयथी संग्रहनय ते बहुविषयी छे. तथा ऋजुसूत्रनय ते वर्तमान विशेष धर्मनो ग्राहक छे, अने व्यवहारथी ऋजुसूत्रनय ते कालविषयनो ग्राहक छे; ते माटे व्यवहार बहुविषयी छे अने व्यवहारथी ऋजुसूत्र अल्पविषयी छे. ऋजुसूत्रनय ते वर्तमानकाल ग्रहे, अने शब्दनय कालांदिवचन लिंगथी वेहेंचता | अर्थने ग्रहे, अने ऋजुसूत्रनय ते वचन लिंगने भिन्न पाडतो नथी; ते माटे ऋजुसूत्रथी शब्दनय अल्पविषयी छे, ऋजुसूत्र बहविषयी छे. अने शब्दनय सर्व पर्यायनो एक पर्यायने ग्रहता ग्रहे, अने समभिरूढ ते जे धर्म व्यक्त ते वाचक पर्यायने ग्रहे; ते माटे शब्दनयथी समभिरूढनय ते अल्पविषयी छे. केमके समभिरूढ ते पर्यायनो सर्वकाल गवेष्यो छे, अने एवंभूतनय ते प्रतिसमयें क्रियाभेदें भिन्नार्थपणो मानतो अल्पविषयी छे; ते माटे एवंभूतथी समभिरुढ बहुविषयी जाणवो अने एवंभूत अल्पविषयी जाणवो. | जे नय वचन छे ते पोताना नयने स्वरूपें अस्ति छे, अने परनयना स्वरूपनी तेमां नास्ति छे; एम सर्व नयनी है विधिप्रतिषेधे करीने सप्तभंगी ऊपजे पण नयनी जे सप्तभंगी ते विकलादेशीज होय अने जे सकलादेशी सप्तभंगी ते प्रमाण छ पण नयनी सप्तभंगी न ऊपजे.
उक्तं च रत्नाकरावतारिकायां "विकलादेशस्वभावा हि नयसप्तभंगी वस्त्वंशमात्रप्ररूपकत्वात् , सकलादेशस्वभावा तु प्रमाणसप्तभंगी संपूर्णवस्तुस्वरूपप्ररूपकत्वात्" ए वचन छे एटले यथायोग्यपणे नयनो अधिकार कह्यो.
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