Book Title: Jivvicharadi Prakaran Sangraha
Author(s): Jinduttasuri Gyanbhandar
Publisher: Jinduttasuri Gyanbhandar
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लोकप्रत्यक्षमां दृष्टिगोचर नथी आवतो ते माटे जीव नथी एम कहे अने जगतमां पंचभूतादिक वस्तु नथी एम कल्पना करी स्थूललोकने कुमार्गे प्रवर्त्तावे ते व्यवहारदुर्नय कहियें ए व्यवहारनयनुं स्वरूप क. वर्तमानक्षणस्थायिपर्यायमात्रप्राधान्यतः सूत्रयति अभिप्रायः ऋजुसूत्रः । ज्ञानोपयुक्तः ज्ञानी, दर्शनोपयुक्तः दर्शनी, कषायोपयुक्तः कषायी, समतोपयुक्तः सामायिकी । वर्तमानापापी तदाभासः यथा तथागतमत इति ॥
ऋजु
अर्थ - हवे ऋजुसूत्रनय कहे छे ऋजु के० सरलपणे अतीत अनागतने अणगवेषतो अने वर्त्तमानसमय वर्त्तता जे पदार्थना पर्यायमात्र तेने प्रधानपणे सूत्रके० गवेषे ते ऋजुसूत्रकहियें । ते ज्ञानने उपयोगें वर्तताने ज्ञानी कहे, दर्शनोपयोगें वर्तताने दर्शनी कहे, कषायपणे वर्तता जीवने कपायी कहें, समताने उपयोगें वर्तता जीवने सामायिकवंत कहे, इहां कोइ पुछे जे उपर कह्या मुजब तो ऋजुसूत्र तथा शब्दनय ए वे एकज थाय छे तेने उत्तर कहे छे जे विशेपावश्यकमां कह्युं छे “कारणं यावत् ऋजुसूत्रः ” एटले ज्ञानने कारणपणे वर्ततो ते ऋजुसूत्र ग्रहे छे अने जे जाणपणारूप कार्यपणे थाय ते शब्दनय कहियें ए फेर छे.
वर्तमानकालनेपण ग्रहण न करे ते ऋजुसूत्राभास कहियें, जे छता भावने अछता कहे जेम अथवा विपरीत कहे जीवने अजीव कहे, अजीवने जीव कहे इत्यादिक ते तथागत के० बौद्धनो मत छे जे छतो सदा सर्वदा वर्ततो जीवादि द्रव्य तेना पर्यायने पलटवे सर्वथा द्रव्यने विनाशि माने तेने ऋजुसूत्रनयाभासाभिप्राय जाणवो ए ऋजुसूत्रनय कह्यो.

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