Book Title: Jivvicharadi Prakaran Sangraha
Author(s): Jinduttasuri Gyanbhandar
Publisher: Jinduttasuri Gyanbhandar

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Page 286
________________ जयचक्रसार मूळ ॥१३९॥ SISCHESACHUSESSAGES जे अवांतर सामान्यने मानतो अने जीवने विषे प्रति जीवनो विशेष भेद भव्य अभव्य सम्यक्त्वी मिथ्यात्वी नरनार बालाव६ कादि जे भेद तेने गजनिमीलिका के. मस्ताइये न गवेषवो ते अपरसंग्रह कहिये अने द्रव्यने सामान्यपणे माने पण बोधसहित स्वद्रव्यनी परिणामिकतादिक धर्मने न माने ते अपरसंग्रहाभास कहिये ए संग्रहनयर्नु स्वरूप कडं. सङ्ग्रहेण च गोचरीकृतानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं येनाभिसन्धिना क्रियते स व्यवहारः, यथा यत् सत् तत् द्रव्यं पर्यायश्चेत्यादिः यः पुनरपरमार्थिकं द्रव्यपर्यायप्रविभागमभिप्रैति स व्यवहाराभासः चार्वाकदर्शनमिति व्यवहारदुर्नयः। अर्थ-हवे व्यवहारनय कहे छे संग्रहनयें ग्रह्या जे वस्तुना तत्त्वादिक धर्म तेनेज गुणभेदें वेहेंचे भिन्नभिन्न गवेषे तथा पदार्थनी गुणप्रवृत्ति तेनेज मुख्यपणे गवेषे ते व्यवहारनय कहिये जेम द्रव्य छे तेना जीव पुद्गलादिक पर्यायना क्रमभावी तथा सहभावी ए रीतें बे भेद छे तेमां वली जीव बे प्रकारे १ सिद्धना, २ संसारी तेमज पुद्गलना बे भेद |परमाणु तथा खंध इत्यादिक कार्यभेदें भिन्न माने तथा क्रमभावी पर्यायना बे भेद एक क्रियारूप बीजो अक्रियारूप | इम वेहेंचण जे सामर्थ्यादिक गुणभेदें पडे ते सर्व व्यवहारनय जाणवो अने जे परमार्थ विना द्रव्यपर्यायनो विभाग करे ते व्यवहाराभास जाणवो. का॥१३९॥ जे कल्पना करी भेदें वेंचे ते चार्वाकमत प्रमुख ए व्यवहारनयनो दुर्नय छे जेम चार्वाक प्रमाणपणे छतो जीवपणो BANKA

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