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नयचक्रसार मूळ
बालावबोधसहित
॥१३॥
|| १ सामान्यपणे वहेंचण विना ग्रहण थाय एवो जे उपयोग अथवा एवं वचन अथवा एवो धर्म कोइपण वस्तुने विशे
होय तेने संगृहीत संग्रह कहिये. | २ अने एकजाति माटे एकपणो मानिने ते एकमध्ये सर्वनो ग्रहण थाय जेम “एगे आया" "एगे पुग्गले" इत्यादि | वस्तु अनंति छे पण जाति एक माटे ग्रहवाय छे ते बीजो पिंडित संग्रह कहियें।
३ जे अनेक जीवरूप अनेक व्यक्ति छे ते सर्वमां पामियें जेम सचित्मयो आत्मा एटले सर्वजीव तथा सर्वप्रदेश सर्वगुण ते जीवनां लक्षण छे एने अनुगम संग्रह कहिये.
तथा जेने ना कहेवे तेथी इतरनो सर्व संग्रहपणे ज्ञान थाय ते जेम अजीव छे तेवारे जे जीव नही ते अजीव कहिये एटले कोइक जीव छे एम व्यतिरेक वचने ठेयों तथा उपयोगें जीवनो ग्रहण थाय ते व्यतिरेक संग्रह कहियें.
अथवा संग्रहनय वे भेदें कहेवाय छे. १ महासत्तारूप, २ अवांतरसत्तारूप ए रीतें पण संग्रहनो स्वरूप कह्यो छे. __ “सदिति भणियम्मि जम्हा, सवत्थाणुप्पवत्तए बुद्धी । तो सवं सत्तमत्तं नत्थि तदत्यंतरं किंचि ॥१॥” यद्यस्मात् सदित्येवं भणिते सर्वत्र भुवनत्रयांतर्गतवस्तुनि बुद्धिरनुप्रवर्तते प्रधावति नहि तत् किमपि वस्तु अस्ति यत् सदित्युक्ते झगिति बुद्धौ न प्रतिभासते तस्मात् सर्व सत्तामात्रं न पुनः अर्थातरं तत् श्रुतसामर्थ्यात् यत् संग्रहेण संगृह्यते तेन परिणमनरूप-2
त्वादेव संग्रहस्येति" एटले त्रणे भुवनमां एहवी वस्तु कोइ नथी जे संग्रहनयने ग्रहणमा आवती नथी जेजे वस्तु छे ते सर्व द संग्रहनयमां ग्रहवाणी ज छे ए संग्रहनय कह्यो.
॥१३१॥