Book Title: Jivvicharadi Prakaran Sangraha
Author(s): Jinduttasuri Gyanbhandar
Publisher: Jinduttasuri Gyanbhandar

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Page 249
________________ तज्ञेय जाणवानी शक्ति छे पण जे ज्ञेय जे रीतें परिणमे ते रीतें ज्ञानगुण प्रवर्ते ए ज्ञानगुणर्नु प्रवर्तन ते प्रतिसमये विपरिणामपणे परिणमन छे. ए पण भवन धर्म छे. वली वृत्यंतरवर्तने अन्यपणे व्यक्तिने हेतु करणे जे भवांतरे वर्तवो ते विपरिणाम कहिये. तथा वली वर्द्धते के० वधे ए वचने उपचयरूपपणे प्रवर्ते जेम अंकुर वधे छे तेम वर्णादिक पुद्गलना गुण उपचयपणे वधे ए ऊपचयरूप भवनता वृत्ति व्यज्यते के० प्रगट करियें छैयें. __ एम गुणने कार्यातरपणे परिणमने द्रव्यमां भवन धर्म छे “अपक्षीयते” ए वचने करीने तु के० वली तेहिज परिणामनो ऊणो थवो अथवा टलवो कहिये, दुर्बल थता पुरुषनी परें, जेम पुरुष दुर्बल थाय तेम पर्यायने घटवे द्रव्य प्रमाणादिक तथा ते समये अगुरुलघु पर्याय घटवे ते दुर्बल थर्बु ते रूप जे भवनवृत्तिने अंतरे व्यक्ति के० प्रगटता कहि छे तथा विनश्यति' एम कहेवाथी आविर्भूत के० प्रगट थयो जे भवनधर्मनो वर्तवो तेनो तिरोभाव थयो कहिये. जेम। |विणस्यो घट जे मृत्पिडने विषे ते चक्रादि कारणे प्रगट थयो, जे घट तेने प्रध्वंसें विनाश कहिये. एम द्रव्यने विषे कार्य करवारूप जे पर्याय तेने तिरोभावें अन्यपणे कार्यकरण रीते समवस्थान जे रहेq ते समये ते भवनवृत्ति कहिये. तथा तिरोभावपणाने अभावें थावं जे कपालादिक उत्तर भवन तेपणे वर्तवं ए पण भवन धर्म छे. एम अनुक्रमे अवि विच्छिन्न निरंतर रूपें इत्यादिक अनेक आकारें द्रव्य तेज भवन लक्षण कहियें. ए भव्य स्वभाव जाणवो द्रव्यनेविषे | जीववि.२१ जे अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमयेत्व, अगुरुलघुत्वादिक धर्म, ते त्रणे कालमां मूल अवस्थाने अपरित्यागे के० तजता नथी. **OSAASAASAASAARISE * AIRAGARSARIES

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