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दंडकप्रकरणम्
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अर्थ
सहितम्
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भागे होता है १८॥ इति चौवीश दंडके उत्कृष्ट और जघन्यसें स्थितिद्वार कहा ॥ (सुरनरतिरिनिरएसु) देवता मनुष्य तिर्यच
और नारकके विषे (छपज्जत्ती) छही पर्याप्ति होति है (थावरेचउगं) और पांच स्थावरके विषे प्रथमकी चार पर्याप्ति है ॥२८॥ विगलेपंचपजत्ती छदिसिआहारहोइसवेसि । पणगाइपएभयणा अहसन्नितियंभणिस्सामि ॥ २९॥ | (विगलेपंचपजत्ती) तीनो विकलेंद्रिके विषे प्रथमकी पांच पर्याप्ति होति है॥१९॥ इति चौवीश दंडकमें पर्याप्तिद्वार ॥ (छद्दिसिआहारहोइसबेसिं) सब जीवोंके आशरे छही दिशीका आहार जान लेना (पणगाइपएभयणा) इतना विशेपकि पृथ्वी कायादि पांचोही स्थावर पदके विषे भजना है इस लिए छएदिशीका आहार होवे भी सही और तीन च्यार |पांच दिशीका भी होवे २०॥ इति चौवीश दंडके छदिशी आहारद्वार ॥ (अहसन्नितियंभणिस्सामि) अब तीन संज्ञा
द्वार कहता हुँ ॥२९॥ |चउविहसुरतिरिएसु निरएसु अ दीहकालिगीसन्ना । विगलेहेउवएसा सन्नारहियाथिरासवे ॥ ३०॥
(चउविहसुरतिरिएसु) चार प्रकारके देवोंके विषे तथा तिर्यच (निरएसुअदीहकालिगीसन्ना) और नारकके विषे दीर्घ कालकी संज्ञा होति है (विगलेहेउवएसा) और विकलेंद्रिके विषे हितोपदेशकीसंज्ञा होति है (सन्नारहियाथिरासबे) और स्थावरो सबही संज्ञा रहित होते है ॥ ३०॥ मणुआणदीहकालिय दिट्ठीवाओवएसिआकेवि। पजपणतिरिमणुअच्चिय चउविहदेवेसुगच्छंति ॥३१॥
॥३८॥