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प्रवृत्तिकारणं विशेषः। न सामान्यं विशेषरहितं न विशेषः सामान्यरहितः॥
अर्थ-हवे ए पंचास्तिकाय ते सामान्य विशेष धर्ममयी छे ते सामान्यनुं लक्षण विशेषावश्यकें का छे तिहां प्रथमथी स्वभावनुं लक्षण कहे छे. जे द्रव्यने विषे व्यापतो होय तथा गुण पर्यायमां पण व्यापकपणे सदा परिणमतो थको पामियें तेने सामान्य स्वभाव कहिये ते समान्य स्वभावजे होय ते एक होय तथा नित्य अविनाशी होय तथा निरवयव के. जेहने अविभाग रूप अवयव न होय अने सर्व गत के० सर्वमा व्यापकपणे होय ते सामान्य स्वभाव कहिये. जीवादि द्रव्यने विषे एकपणो ते पिंडपणे छे ते सर्व द्रव्यने विषे छे सर्व गुण पर्याय पोतानें रूपें अनेक छे पण ते समुदाय पिंडपणुं मूकीने जूदा थायज नही ते माटे ए रीतें जे परिणमन होय ते सामान्य स्वभाव कहियें सामान्यना बे भेद छे
अस्तितादिक जे सर्वपदार्थने विषे छे ते महा सामान्य कहिये. एनी श्रुतज्ञानेकरी प्रतीत थाय पण प्रत्यक्ष तो अवधिता दर्शन केवलदर्शनेज जणाय. परोक्षे न ग्रहवाय. तथा वृक्ष अंबनिंब जंबु प्रमुख व्यक्ति अनेक छे पण वृक्षत्व सर्वमा छे ए
अवांतर सामान्य ते चक्षुदर्शने तथा अचक्षुदर्शने ग्रहवाय अने अस्तित्व वस्तुत्वादि सामान्य ते अवधिदर्शने तथा केवलदर्शने ग्रहवाय अने विशेष धर्म ते ज्ञान गुणेज ग्रहवाय हवे विशेषनुं लक्षण कहिये छीए, कोइक धर्मे नित्य कोइक धर्मे अनित्य कोइक रीतें अवयव सहित, कोइक रीतें अवयव रहित, अविभाग पर्यायें सावयव, सामर्थ्य पर्याय निरवयव, पण सक्रियता हेतु देशगत जे गुण ते गुणांतरमा व्यापता नथी ते माटे देशगत जे गुण होय ते आखा द्रव्यमां व्यापकज होय तेने सर्वगत कहियें तो एवा जे धर्म ते सर्व विशेष जाणवा पदार्थना गुणनी प्रवृत्ति तेना जे कारण ते