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हरे यक्ष राक्षस्स भूतं पिशाचं, विषं डाकिनी विघ्न के भय अवाचं ॥३॥ दरिद्रीनको द्रव्य के दान दीने, अपुत्रीनकों ते भले पुत्र कोने । महासंकटों से निकारे विधाता, सबै संपदा सर्व को देहि दाता ॥४॥ महाचोर को वज़ को भय निवार, महापौन के पुंजते तू उबार । महाक्रोध की अग्नि को मेघ-धारा, महालोभ-शैलेश को वन भारा ॥५॥ महामोह अंधेर को ज्ञान भानं, महाकर्मकांतार को दो प्रधानं । किये नाग नागिन अधोलोक स्वामी, हरयो मान तू दैत्य को ही अकामी ॥६॥ तुही कल्पवृक्ष तुही कामधेनु, तुही दिव्य चिंतामणी नाग एनं । पशू नर्क के दुःखतें तू छुड़ावै, महास्वर्ग से मुक्ति में तू बसावें ॥७॥ कर लोह को हेम पाषाण नामी, रटै नाम सो क्यों न हो मोक्षगामी। कर सेवता की करें देवसेवा,