Book Title: Jinendra Poojan
Author(s): Subhash Jain
Publisher: Raghuveersinh Jain Dharmarth Trust New Delhi

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Page 164
________________ जनम मरण दुख दूर करिंदा ॥इहविधि०॥३॥ चौथी आरती श्री उवझाया। दर्शन देखत पाप पलाया ।इहविधि०॥४॥ पांचमी . भारती साधु तिहारी । कुमनि-विवान शिव-अधिकारी ॥इहविधि०॥५।। छट्ठी ग्यारह प्रतिमा धारी। श्रावक बंदों आनन्दकारी ॥इहविधि०॥६॥ सातमि आरती श्रीजिनवानी। 'द्यानत' सुरग मुकति सुखदानी ॥इहविधि०॥७॥ भागचन्द्र कत (भजन) राग सोरठा हे जिन तुम गुन अपरं पार, चन्द्रोज्ज्वल अविकार ॥टेक।। जब तुम गर्भमाहिं आये, तबै सव सुरगन मिलि आये। रतन नगरी में वरषाये, अमित अमोघ सुढार ॥हे जिन०॥ जन्म प्रभु तुमने जब लीना, न्हवन सुरगिर परि कीना। भक्ति करि सची सहित भीना, बोलो जयजयकार हे जिन०॥२ जगत छनभंगुर जब जाना, भये तव नगनवृत्तो वाना। स्तवन लोकांतिकसुर ठाना, त्याग राजको भार हे जिन०॥३ घातिया प्रकृति जवं नासी, चराचर वस्तु सर्व भासी। धर्म की वृष्टि करी खासी, केवलज्ञान भंडार ॥हे जिन०॥४ अघाती प्रकृति सुविघटाई, मुक्तिकान्ता तब ही पाई। निराकुल आनंद असहाई, तीनलोकसरदार ॥ हे जिन० ॥५ पार गनधर हूं नहिं पावै, कहां लगि 'भागचन्द' गावै । तुम्हारे चरनांबुज ध्याव, भवसागर सों तार ॥हे जिन०॥६

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