Book Title: Jinendra Poojan
Author(s): Subhash Jain
Publisher: Raghuveersinh Jain Dharmarth Trust New Delhi

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Page 149
________________ १४५ एकसौ वेसठं कोडि, जोजन महा । लाख चौरासिया एक दिश में लहा ॥ आठमों दीप नंदीश्वरं भास्वरं । भौन बावन्न प्रतिमा नमों सुखकरं ।।२।। चार दिशि चार अंजनगिरी राजहीं । सहस चौरासिया एक दिश छाजहीं ॥ ढोलसम गोल ऊपर तले संदरं ।।भौन० ॥३।। एक इक चार दिशि चार शुभ बावरी । एक इक लाख जोजन अमल-जल भरी ।। चहुँ दिसा चार बन लाख जोजन वरं । भौन वावन्न प्रतिमा नमों सुखकरं ॥४॥ सोल वापीन मधि सोल गिरि दधिमुखं । सहस दश महा जोजन लखत ही मुखं । वावरी कौन दो माहि दो रति करं ॥भौन० ॥५| शैल बत्तीस इक सहस जोजन कहे । चार सोले मिले सर्व बावन लहे ॥ एक इक सीस पर एक जिनमंदिरं ! भौन० ॥६॥ विव अट एकसौ रतनमयि सोहहीं । देव देवी सरव नयन मन मोहहीं ।। पांचस धनुप तन पद्म-आसन परं ।भौन० ॥७॥ लाल नख-मुख नयन स्याम अरु स्वेन हैं । स्याम-रंग भौंह मिर-केशछवि देन हैं। वचन बोलत मनों हँसत कालुप हरं ।।भोन० ।।८।।

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