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समुच्चय-जयमाला
दोहा दश लच्छन वंदी सदा, मन-वांछित फलदाय । कहों आरती भारती, हम पर होहु सहाय ॥
वेसरी छन्द उत्तम छिमा जहाँ मन होई, अंतर-बाहिर शत्रु न कोई। उत्तम मार्दव विनय प्रकास, नाना भेद ज्ञान सब भासे ।। उत्तम आजव कपट मिटाव, दुरगति त्यागि सुगति उपजावै । उत्तम सत्य-वचन मुख बोले, सो प्रानी संसार न डोले ॥ उत्तम शौच लोभ-परिहारी, संतोषी गुण-रतन-भंडारी। उत्तम संयम पाले ज्ञाता, नर-भव सफल करै ले साता। उत्तम तप निरवांछित पाले. सो नर करम-शत्रु को टाल । उत्तम त्याग कर जो कोई, भोगभूमि - सुर-शिवमुख होई॥ उत्तम आकिंचन वन धार, परम समाधि दशा विसतारै। उत्तम ब्रह्मचर्य मन लावै नर-सुर सहित मुकति-फल पावै॥
दोहा
कर करम की निरजरा, भव पीजरा विनाश ।
अजर अमर पदको लहै, 'द्यानत' सुखको राश। ॐ ह्रीं उत्तमक्षमामार्दवावशीचसत्यसंयमतपत्यागाकिंचन्यब्रह्मचर्यदशलक्षणधर्मेभ्यः पूर्णाध्य निर्वपामीति स्वाहा ।