Book Title: Jinendra Poojan
Author(s): Subhash Jain
Publisher: Raghuveersinh Jain Dharmarth Trust New Delhi
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१५१
निचे राग द्वेष निरवा, ज्ञाता दोनों दान संभारे ॥
परिनया । बह गया ॥
विरोध को ।
वोध को ||
दोनों सँभारे कूप - जलसम, दरब घर में निज हाथ दीजे साथ लीजे, खाय खोया धनि साध शास्त्र अभय-दिवैया, त्याग राग बिन दान श्रावक साध दोनों, लहें नाहीं ॐ ह्रीं उत्तमत्यागधर्माङ्गाय अर्धं निर्वपामीति स्वाहा । परिग्रह चौविस भेद, त्याग करें मुनिराज जी । तिसना भाव उछेद, घटती जान घटाइए || उत्तम आकिंचन गुण जानो, परिग्रह चिंता दुख ही फाँस तनक सी तन में सालं, चाह लंगोटी की दुब भालं न समता सुख कभी नर, बिना मुनि - मुद्रा धनि नगन पर तन नगन ठाड़े, सुर असुर पायनि परें । घर माहिं तिपना जो घटावं, रुचि नहीं संसारसों । बहु धन बुरा हू भला कहिये, लीन पर - उपगार सौं | ॐ ह्रीं उत्तमाकिंचन्यधर्मांगाय अर्षं निर्वपामीति स्वाहा ।
धरें ।
शील - वाढ़ नौ राख, ब्रह्म भाव अंतर लखो ।
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मानो ।
भालं ॥
करि दोनों अभिलाख, करहु सफल नर-भव सदा ॥ उत्तम ब्रह्मचर्य मन आनो, माता बहिन सुता पहिचानौ । सहैं बान - वरषा बहु सूरे, टिकं न नंन वान लखि कूरे ॥ कूरे तिया के अशुचि तन में, काम रोगी रति करें । बहु मृतक सड़ह मसान माहीं, काग ज्यों चोंचें भरें ॥ संसार में विष वल नारी, तजि गये जोगीश्वरा । 'द्यानत' धरम दश पेंडि चढ़िकें, शिव महल में पग धरा ॥
ॐ ह्रीं उत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय अर्थं निर्वपामीति स्वाहा ।
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