Book Title: Jinendra Poojan
Author(s): Subhash Jain
Publisher: Raghuveersinh Jain Dharmarth Trust New Delhi

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Page 157
________________ १५३ स्वयम्भू-स्तोत्र [ कविवर द्यानतराय ] राजविष जुगलनि सुख कियो, राज त्याग भुवि शिवपद लियो । स्वयंबोध स्वयंभू भगवान, बंदी आदिनाथ गुणखान || इंद्र छीर - सागर - जल लाय, मेरु न्हवाये गाय बजाय मदन- विनाशक सुख करतार, बंदों अजित अजित - पदकार ॥ शुकल ध्यानकरि करम विनाशि, घाति अघाति सकल दुखराशि | 'लह्यो मुकतिपद सुख अधिकार, बंदों सम्भव भव-दुख टार । माता पच्छिम रयन मँझार, सुपने सोलह देखे सार । भूप पूछि फल सुनि हरषाय, बंदौ अभिनन्दन मन लाय || सव कुवादवादी सरदार, जीते स्यादवाद - धुनि धार । जैन-धरम-परकाशक स्वाम, सुमतिदेव पद करहुँ प्रनाम ॥ गर्भ अगाऊ धनपति आय, करी नगर - शोभा अधिकाय । बरसे रतन पंचदश मास, नमीं पदमप्रभु सुख की गम ॥ इंन फनिंद नरिंद त्रिकाल, वानी सुनि सुनि होहि खुस्याल । द्वादश सभा ज्ञान-दातार, नमों सुपारसनाथ निहार ॥ सुगुन छियालिस हैं तुम माहि, दोष अठारह कोऊ नाहि । - मोह महातम - नाशक दीप, नमों चन्द्रप्रभ राख ममीप || - द्वादशविध तप करम विनाश, तेरह भेद चग्नि परकाश । निज अनिच्छ भवि इच्छकदान, बंदों पहुपदंन मन आन || भवि मुखदाय सुरगर्त आय, दशविध धरम कह्यां जिनराय । आप समान सबनि सुख देह, बंदों शीतल धर्म - सनेह || समता सुधा कोप - विष नाश, द्वादशांग वानी परकाश |

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