Book Title: Jinendra Poojan
Author(s): Subhash Jain
Publisher: Raghuveersinh Jain Dharmarth Trust New Delhi
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दैत्य कियो उपसर्ग अपार, ध्यान देखि आयो फणधार । गयो कमठ शठ मुख करि श्याम, नमो मेरुसम पारस स्वाम ।। भव सागर ते जीव अपार, धरम पोत में धरे निहार । ड्वत काढ़े दया विचार, वर्धमान बंदों बहुवार ।।
दोहा चौवीसों पद-कमलजुग, बंदों मन-वच-काय । 'द्यानत' पढ़े सुने सदा, सो प्रभु क्यों न सहाय ।।
निर्वाणक्षेत्र-अर्घ्य जल गंध अच्छत फूल चरु फल धूप दीपायन धरौं। "द्यानत" करो निरभय जगत तें जोर कर विनती करों। सम्मेदगिर गिरनार चम्पा पावापुर कैलासकी ।
पूजों सदा चौबीस जिन निर्वाणभूमि निवास की ।। ॐ ह्रीं चतुर्विशतितीर्थङ्करनिर्वाणक्षेत्रेभ्यो अनर्षपदप्राप्तये अर्घ
महाघ
गीता छन्द मैं देव श्री अर्हन्त पूजूं, सिद्ध पूजूं चावों । आचार्य श्री उवझाय पूजूं, साधु पूजू भावमों ।। अर्हन्त - भापित वैन पूजू, द्वादशांग रचे गनी । पूजू दिगम्बर गुरुचरन शिव हेत सब आशा हनी ।। सर्वज्ञभाषित धर्म दशविधि दया - मय पूजं सदा । जजि भावना पोडश रतनत्रय जा बिना शिव नहि कदा ॥ त्रैलोक्य के कृत्रिम अकृत्रिम चत्य चैत्यालय जनँ । पन मेरु नन्दीश्वर जिनालय खचर सुर पूजित भजू ।।

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