Book Title: Jinendra Poojan
Author(s): Subhash Jain
Publisher: Raghuveersinh Jain Dharmarth Trust New Delhi

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Page 158
________________ चार संघ - आनंद - दातार, नमों श्रियांस जिनेश्वर सार ।। रतनत्रय चिर मुकुट विशाल, सोभे कंठ सुगुन मनि - माल। मुक्ति - नार - भरता भगवान, वासुपूज्य बंदी घर ध्यान ॥ परम समाधि - स्वरूप जिनेश, ज्ञानी ध्यानी हित - उपदेश । कर्म नाशि शिव - सुख - विलसंत, बंदी विमलनाथ भगवंत ।। अंतर वाहिर परिग्रह डारि, परम दिगंबर - व्रत को धारि । सर्व जीव - हित - राह दिखाय, नमों अनंत वचन मन लाय । सात तत्त्व पंचासतिकाय, अरथ नवों छ दरब बहु भाय । लोक अलोक सकल परकास, बंदों धर्मनाथ अविनाश ।। पंचम चक्रवरति निधि भोग, कामदेव द्वादशम मनोग। शांतिकरन सोलह जिनराय, शांतिनाथ बंदी हरखाय ।। बहु थुति करे हरष नहिं होय, निदे दोष गहें नहिं कोय । शीलवान परब्रह्मस्वरूप, बंदों कुन्थुनाथ शिव - भूप ।। द्वादश गण पूजें सुखदाय, थुति वंदना करें अधिकाय । जाकी निज-थुति कबहुँ न होय, बंदों अर-जिनवर-पद दोय ॥ पर-भव रतनवय - अनुराग, इह भव ब्याह - समय वैराग । बाल - ब्रह्म- पूरन - व्रत धार, बंदी मल्लिनाथ जिनसार । बिन उपदेश स्वयं बैराग, थुति लोकांत करें पग लाग । नमः सिद्ध कहि सब व्रत लेहि, बंदों मुनिसुव्रत व्रत देहि ।। श्रावक विद्याबंत निहार, भगति - भाव सों दियो अहार । वरसी रतन - राशि ततकाल, बंदों नमि प्रभु दीन - दयाल ॥ सब जीवन की बंदी छोर, राग - दोष है बंधन तोर । रजमति तजि शिव-तियसों मिले, नेमिनाथ बंदों सुखनिले ॥

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