Book Title: Jinendra Poojan
Author(s): Subhash Jain
Publisher: Raghuveersinh Jain Dharmarth Trust New Delhi

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Page 154
________________ १५० ऊपर अमल मल भरयो भीतर, कौन विधि घट शुचि कहै। बहु देह मैली सुगुन-थली, शौच-गुन साधू लहै ॥ ॐ ह्रीं उत्तमशीचधर्माङ्गाय अर्ष निर्वामीति स्वाहा। काय छहों प्रतिपाल, पंचेंद्री मन वश करो। संजम-रतन संभाल, विषय चोर बहु फिरत हैं।। उत्तम संजम गहु मन मेरे, भव-भवके भाजे अघ तेरे। सुरग-नरक-पशुगति में नाहीं, आलस-हरन करन सुख ठाहीं॥ ठाहीं पृथी जल आग मारुत, रूख त्रस करुना धरो । सपरसन रसना घ्रान नना, कान मन सव वश करो ॥ जिस बिना नहिं जिनराज सीझे, तू रुल्यो जग-कीच में । इक घरी मत विसरो करो नित, आव जम-मुख बीच में । ॐ ह्रीं उत्तमसंयमधर्माङ्गाय अर्ष निर्वपामीति स्वाहा। तप चाहै सुरराय, करम - सिखर को वन है । द्वादशविधि सुखदाय, क्यों न करै निज सकति सम ।। उत्तम तप सब माहि वखाना, करम-शैल को वज्र-समाना । वस्यो अनादि-निगोद-मंझारा, भू-विकलत्रय-पशु - तनधारा॥ धारा मनुष तन महादुर्लभ, सुकुल आव निरोगता । श्रीजनवानी तत्त्वज्ञानी, भई विषय - पयोगता ॥ अति महा दुरलभ त्याग विषय, कषाय जो तप आदरें । नर-भव अनूपम कनक घर पर, मणिमयी कलसा धरै ।। ॐ ह्रीं उत्तमतपोधर्माङ्गाय अर्ष निर्वपामीति स्वाहा। दान चार परकार, चार संघ को दीजिए । धन विजुली उनहार, नर-भव-लाहो लीजिए । उत्तम त्याग कझो जग सारा, औषध शास्त्र अभय आहारा ।

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