Book Title: Jinendra Poojan
Author(s): Subhash Jain
Publisher: Raghuveersinh Jain Dharmarth Trust New Delhi
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आठ दरब संवार, 'द्यानत' अधिक उछाहसों । भव- आताप निवार, दस-लच्छन पूजों सदा ॥ ॐ ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्मायार्धं निर्वपामीति स्वाहा ।
अंगपूजा
सोरठा
पीडे दुप्ट अनेक, बाँध मार बहुविधि करें । धरिये छिमा विवेक, कोप न कीजै पीतमा ॥ उत्तम छिमा गहो रे भाई, इह भव जस पर-भव सुखदाई । गाली सुनि मन खेद न आनो, गुनको औगुन कहे अयानो ॥ कहि है अयानो वस्तु छोनं, वाँध मार बहुविधि करें । घरतें निकारे तन विदारे, बैर जो न तहाँ घरं ॥ तें करम पूरव किये खोटे, सहै क्यों नहि जीयरा । अति क्रोध- अर्गानि बुझाय प्रानी, साम्य जल ले सीयरा ॥ ॐ ह्रीं उत्तमक्षमाधर्माङ्गाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
मान महाविषरूप, करहि नीच गति जगत में । कोमल सुधा अनूप, सुख पावै प्रानी सदा || उत्तम मार्दव-गुन मन माना, मान करनको कौन ठिकाना । वस्यो निगोद माहित आया, दमरी रूकन भाग विकाया || विकाया भाग -वशतें देव इकइंद्री भया । उत्तम मुआ चांडाल हूवा, भूप कीड़ों में जीतव्य जीवन धन गुमान कहा करें जल- बुदबुदा । करि विनय बहु-गुन बड़े जनकी, ज्ञानका पार्श्व उदा ॥ ॐ ह्रीं उत्तममार्दवधर्माङ्गाय अघं निर्वपामीति स्वाहा ।
रूकन
गया ।
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