Book Title: Jinendra Poojan
Author(s): Subhash Jain
Publisher: Raghuveersinh Jain Dharmarth Trust New Delhi
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कोटि-शशि-भान-दुति-तेज छिप जात है। महा-वैराग-परिणाम ठहरात है। वयन नहिं कहें लखि होत सम्यक्धरं ।भौन० ॥६॥
सोरठा नंदीश्वर-जिन-धाम, प्रतिमा-महिमा को कहै ।
'द्यानत' लीनो नाम, यही भगति शिव-सुख करे। ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे पूर्वपश्चिमोत्तरदक्षिणदिक्षु द्विपंचाशजिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्यो पूर्णा निर्वपामीति स्वाहा।
[इत्याशीर्वादः । पुष्पाञ्जलिं क्षिपामि]
दशलक्षणधर्म-पूजा [कविवर द्यानतरायजो]
अडिल्ल उत्तम छिमा मारदव आरजव भाव हैं,
सत्य सौच संयम तप त्याग उपाव हैं। आकिंचन ब्रह्मचरज धरम दश सार हैं,
__ चहुंगति-दुखतें काढ़ि मुकति करतार हैं। ॐ ह्रीं उत्तमममादिदशलक्षणधर्म ! अवतर् अवतर् संवौषट् । ॐ ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्म ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । ॐ ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्म ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
सोरठा हेमाचलकी धार, मुनि-चित सम शीतल सुरभि । भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजों सदा ।

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